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१४२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
दोनों ही है । उसमें निरीक्षण भी है और अन्तर्दृष्टि भी, सामान्यीकरण भी है और चिन्तन भी, विश्लेषण भी है और मूल्यांकन भी और अगमन ( अपेक्षात्मक) भी है और निगमन ( अनपेक्षात्मक) भी । इस प्रकार वह एक समन्वयात्मक प्रणाली है । उसमें वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रणालियाँ परस्पर निर्भर हैं ।
नीतिशास्त्र विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करता है, पर वहीं रुक नहीं जाता, बल्कि उससे उपर उठकर दर्शन के क्षेत्र में पहुँचता है । नैतिक चेतना मानव की विशेषता है जो उसे पशु और देवता से अलग करती है तथा पशुत्व से ऊपर उठाकर नैतिक मानव तक - नैतिकता की उच्चतम सीमा तक ले जाती है ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नीतिशास्त्र के अध्ययन की सर्वांगक्षम प्रणाली समन्वयात्मक प्रणाली है। इस बहुआयामी दृष्टिबिन्दु को जैन सिद्धान्त में अनेकांतवाद कहा है । इस अपेक्षा से समन्वयात्मक प्रणाली को अनेकान्तात्मक प्रणाली भी कहा जा सकता है; जहाँ प्रत्येक आयाम को उसका उचित महत्व प्रदान किया जाता है ।
नीतिशास्त्र की शैलियाँ
नीति साहित्य की ऐसी विधा है, जिसमें प्रेषणीयता एक अनिवार्य तत्व है । जिस मनीषी, लेखक, कवि के कथन अथवा काव्य में जितनी ही अधिक प्रेषणीयता होगी, पाठक उतना ही अधिक प्रभावित होगा और उसके हृदय पर वह नीतिवाक्य सदा के लिए अंकित हो जायेगा, यदा-कदा उसके स्मृतिपटल पर गहराता रहेगा ।
प्रेषणीयता के लिए भाषा का सरल और सुबोध होना अतिआवश्यक है; कठिन और दुर्बोध्य शब्दों में कही हुई बातें सामान्य जन न तो हृदयंगम कर पाते हैं और न उनकी स्मृति में ही वे शब्द रह पाते हैं, उन शब्दों को न समझने के कारण लोग न उनमें रस ले सकते हैं और न ही उचित अवसर पर उनका उपयोग कर सकते हैं ।
अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि कम शब्दों में अपनी बात कही जाय । दूसरी विशेषता है— उपमा द्वारा अपने कथन की पुष्टि जाय । तीसरी बात है - शब्द योजना चुभती और पैनी हो । चौथी बात है - चोट सीधी न हो, किसी को इंगित करके कही जाय ।
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