________________
१८. जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
क्योंकि इसके कारण उनका राजकोष भरता था। लेकिन यह प्रथा व्यभिचार' कलह का कारण बन गई तथा इसने निःसंतान स्त्रियों की दशा बहुत ही पतित कर दी।
जैन धर्म में प्रारम्भ से ही इस नीति के विरोधी स्वर मिलते हैं। जब भृगु पुरोहित अपनी पत्नी और दोनों पुत्रों के साथ श्रामणी दीक्षा ग्रहण करने को तत्पर हो जाता है, तब इस परम्परा के अनुसार राजा इषुकार के राजकोष में जमा करने के लिए पुरोहित का सारा धन लाया जाता है। उस समय रानी कमलावती इसे वमन किया हुआ धन बताकर इसकी निन्दा करती है।
इस निन्दा से भी राजाओं की स्वार्थवृत्ति के कारण यह कुत्सित परम्परा बन्द नहीं हुई अपितु व्यभिचार, कलह आदि की वृद्धि करती हुई वृद्धिंगत होती रही । स्थिति बहुत ही भंयकर हो गई। तब एक घटना के फलस्वरूप आचार्य हेमचन्द्र ने व्यवस्था दी
पति यदि पतित हो गया हो, कहीं चला गया हो, विक्षिप्त हो गया
१. एक वृद्वा सेठानी ग्राम सीमा पर सोते हुए कयवन्ना शाह को अपने चाकरों द्वारा
सिर्फ इसलिए उठवा ले आती है कि उसका पुत्र अपुत्री ही मर गया है और कयवन्ना उसकी चार पुत्रवधुओं से पुत्र उत्पन्न करे, जिससे उसके धन को राजा न हड़प सके । (पूरी घटना के लिए देखिए-कथा कोष प्रकरण, धर्मोपदेश
विवरण तथा जैन कथाएं भाग ४६ उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी कृत) २. दो विधवा स्त्रियाँ एक पुत्र के लिए लड़ती हुई आई और एक शिशु को अपना
अपना पुत्र बताने लगीं। इस कलह का कारण भी यही दुर्नीतिपूर्ण परम्परा थी। इसका न्याय भगवान सुमतिनाथ की माता सुमंगला ने किया। ऐसी ही कथा King Solomen's Justice में मिलती है।
-देखिए उपाध्याय पुष्करश्री मुनि जी कृत : जैन कथाएं भाग १०१ ३. उत्तराध्ययन सूत्र, १४वां इषुकारीय अध्ययन, गाथा ३८
नष्टे भ्रष्टे च विक्षिप्ते पतौ प्रवजिते मते । तस्य निश्शेषवित्तस्याधिपा स्याद्वरवणिनी ॥ कुटुम्बपालने शक्त्या ज्येष्ठा या च कुलांगना । पुत्रस्य सत्वेऽसत्वे च भर्तृवत्साधिकारणी ॥
-अर्ह नीति, दायभाग प्रकरण, श्लोक ५२-५३, पृ० १२८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org