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२२० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अन्धकार आत्मा को, आत्मिक शक्तियों को, आत्मिक सद्गुणों को तिरोहित करता है, बुद्धि को मलिन करता है, हृदय को क्रूर और कठोर बनाता है और इन सबका व्यावहारिक परिणाम होता है, दुराचरण तथा अनैतिक आचरण । मानव मन से, वचन से,शारीरिक चेष्टाओं से अनैतिक बन जाता है।
नीति की अपेक्षा से सम्यक्त्व इसी अन्धकार को नष्ट करने के लिए सहस्ररश्मि दिनकर के समान तेजपुंज है । यह यथार्थ दृष्टिकोण की आत्म-ज्योति को प्रगट करता है, उद्दीप्त करता है और संपूर्ण जीवन-व्यवहार में चमक भर देता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुक्ति का अधिकार पत्र है तो नतिक दृष्टि से नीतिपूर्ण जीवन का आधार भी है । यह आध्यात्मिक नैतिक जीवन का प्राण है इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व जीवन दृष्टि है, जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण है, विचारणा की एक निश्चित गति है, जिससे आचार में प्रगति होती है।
वैचारिक और आचार सम्बन्धी गति-प्रगति का आधार है-अनासक्ति और समत्व भाव है--राग-द्वेष आदि की अल्पता, अहं-मम तथा मेरेतेरे की भावना का विसर्जन, कषायों का उपशमन, चित की वृत्तियों का शोधन, लालसाओं का परिसीमन ।
यह सब सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन के प्रभाव से होता है, वही एक ऐसी जीवन दृष्टि देता है जो न्यायपूर्ण, उचित होती है,कर्तव्याकर्तव्य, शुभाशुभ आदि का विवेक करने में सक्षम बनाती है तथा शुभतम आचरण की ओर मानव को प्रेरित करती है ।।
वस्तुतः सम्यक्त्व प्रदत्त विवेकदृष्टि सुमन की महक के समान होती है । जैसे सुमन स्वयं अपनी सुगन्धि से तो सुरभित रहता ही है, अन्यों के जीवन को-वातावरण को भी सुवासित कर देता है । इसी प्रकार सम्यक्त्व भी सम्यक्त्वी के जीवन को आध्यात्मिक तथा नैतिक दृष्टि से उन्नत बनाता है तथा अन्य संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को भी उन्नत जीवन की प्रेरणा देता है।
यही सम्यक्त्व का नीतिशास्त्रीय महत्व है कि यह निश्चिन्त, तनाव रहित, शान्त और समत्व पूर्ण जीवन जीने की सही दिशा निर्धारित कर देता है।
सम्यग्दर्शन का सबसे बडा कार्य है-ज्ञान में यथार्थता का समावेश करके उसे सम्यग्ज्ञान बना देना।
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