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२६६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशोलन (अपनी समस्त इन्द्रियों को) अंकुश में रखकर नैतिक जीवन व्यतीत करता
यह मार्गानुसारी के ३५ गुण जैन साधक की व्यावहारिक नीति के निर्देशक सूत्र हैं। इन निर्देशों को हृदयंगम करता हआ वह अपने जीवनव्यवहार को संचालित करता है और नीति के उत्कर्ष की ओर गति-प्रगति. करता है। - प्रस्तुत गुणों की विवेचना करने से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि इनमें से कुछ गुण तो केवल शरीर स्वस्थता सम्बन्धी हैं; जैसे अजीर्ण होने पर भोजन न करे और नियत समय पर सन्तोष के साथ भोजन करे (१६वां और १७वाँ गुण), कुछ धर्म भावना तथा धर्माचरण से सम्बन्धित हैं (१५वां गुण) और शेष व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन, उसके आचरण को उन्नत और समाजोपयोगी बनाने वाले हैं । ३४वा और ३५वाँ गुण व्यक्ति को अगली सीढ़ी अर्थात् गृहस्थधर्म के पालन के लिए उपयुक्त भूमिका तैयार करता है।
यद्यपि यह सत्य है कि मार्गानुसारी व्यक्ति की भूमिका प्राथमिक है, वह पूणरूप से नैतिक आदर्श का पालन नहीं कर पाता, किन्तु नीतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए अपने कदम तो अवश्य बढ़ाता है, नैतिकता का अभ्यास करता है और शनैः शनैः इस अभ्यास को दृढ़ से दृढ़तर करता चला जाता है।
उसका ध्येय धर्म साधना होता है, वही उसका लक्ष्य होता है, उसी की प्राप्ति के लिए वह प्रयत्नशील रहता है । इसी ध्येय की सिद्धि के लिए वह इन ३५ गुणों द्वारा व्यावहारिक जीवन को अधिक से अधिक शुद्ध बनाता है।
नीति का लक्ष्य भी यही है । जैसाकि पश्चिमी विचारक श्री वार्डलॉ ने अपने कथन में व्यक्त किया है- नैतिकता धर्म का व्यावहारिक रूप है और धर्म नैतिकता का सैद्धान्तिक रूप ।'
आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है - इन ३५ गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति गृहस्थ धर्म धारण करने के योग्य बनता है । इसका अभि
1 Morality is religion in practice; Religion is norality in principle.
-Ralph Wardlaw.
(quoted-Bunches of Sayings, p. 114) २ गृहिधर्माय कल्पते ।
-योगशास्त्र, १/५६
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