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२७६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अतिक्रम आदि
यद्यपि साधक नैतिक उत्कर्षता की ओर अपने दृढ़ कदम बढ़ाता है किन्त मानव-जीवन अत्यन्त जटिल है, जीवन में अचानक ही ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं कि वह स्वयं को ऐसे चौराहे पर खड़ा पाता है, जहाँ से उसे यह सुझाई नहीं देता कि किस मार्ग पर चले ।
आर्थिक उतार-चढ़ाव, सामाजिक समस्याएँ, पारिवारिक झमेले आदि अनेक प्रकार के स्पीड ब्रेकर उसके जीवन में आ जाते हैं, कभी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ, पत्नी-बच्चों की समस्याएँ आदि बहत सी विपरीत और विषम परिस्थितियाँ उसके मस्तिष्क को गड़बड़ा देती हैं, मनोबल टूटने लगता है । ऐसी परिस्थितियों में उसके लिए नैतिकता एवं धर्म के मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है ।
उसके मन-मस्तिष्क में दुर्बलता का प्रवेश हो जाता है । विचार प्रवाह उमड़ने लगता है-इन व्रत-नियमों में बंधकर नैतिक जीवन व्यतीत करना तो असम्भव है । और इस स्थिति में , उससे नैतिक जीवन में दोष लगने की सम्भावना हो जाती है।
फिर मानव, भूल का पात्र भी है। जब तक वह नैतिकता की सर्वोच्च श्रेणी तक नहीं पहुँच पाता तब तक उससे जाने-अनजाने भूलें हो भी जाती हैं।
मानव की इस दुर्बलता की ओर भी जैन विचारकों ने ध्यान दिया है और इस दृष्टि से व्रत-नियमों के अतिक्रमण की चार कोटियाँ बताई हैं।
(१) अतिक्रम-नैतिक आचरण के उल्लंघन का मन में विचार या कल्पना उत्पन्न होना।
(२) व्यतिक्रम-ग्रहण किये हुए नियम की मर्यादा को उल्लंघन करने के लिए क्रियाशील होना ।
१. To err is humane. २. अतिक्रमण का अभिप्राय, नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में स्वीकृत व्रतों-नियमों तथा
नैतिक आचरण से विचलित हो जाना अथवा आचरण में मलिनता का प्रवेश हो जाना है।
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