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नैतिक उत्कर्ष | २६३
गुणव्रत जीवन की बाह्य (साथ ही आन्तरिक भी) गतिविधियों, क्रिया-कलापों को अनुशासित करते हैं ।
गुणव्रत, अणुव्रतरूपी दुर्ग की रक्षा-प्राचीर के समान हैं। ये हिंसा आदि अनैतिकताओं के मार्गों को अवरुद्ध करने में काफी सीमा तक सहायक बनते हैं । इनको अपनाने से नैतिक जीवन निखरता है ।
गुणव्रत तीन हैं-(१) दिशापरिमाणव्रत, (१) उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत और (३) अनर्थदण्डविरमणव्रत ।
दिशापरिमाणवत इसमें व्यक्ति दशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेता है कि उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ऊर्ध्व, ऊधो आदि दशों दिशाओं में अमुक दूरी तक ही जाऊँगा, इससे आगे मैं नहीं जाऊँगा।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ने गमन के तीन कारण बताये हैं
(१) अधिकाधिक लोभ के वशीभूत होकर व्यापार की अभिवृद्धि के
लिए,
(२) आमोद-प्रमोद, सैर-सपाटे, और वैषयिक सुखों के आस्वादन
के लिए, और
. (३) किसी आध्यात्मिक पुरुष के दर्शन के लिए।
इनमें से अन्तिम तीसरा कारण तो नैतिक है, आध्यात्मिक उन्नतिकारक होने से धर्मानुमोदित है । इसके लिए गमन की मर्यादा निश्चित करने की कोई आवश्यकता नहीं।
किन्तु प्रथम दो कारण दुर्नैतिक और अनैतिक हैं। क्योंकि लोभ अनीति का जनक है और वैषयिक सुखों के लिए गमन भी नीति के विरुद्ध
नीतिवान सद्गृहस्थ को ऐसी कोई भी गतिविधि नहीं करनी चाहिए जिससे अनैतिकता की तनिक भी संभावना हो।
f. Gunavratas discipline the external movements.
-D. N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 102 २. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी : श्रावकधर्मदर्शन, पृ. ३६०
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