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जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान | २६३
ये दोनों ही सीमा से अधिक बढ़ जाने पर विग्रह का कारण बन जाते हैं। अधिक संग्रह की इच्छा शोषण को जन्म देती है, जिसके कारण जन-असन्तोष फैलता है, भ्रष्टाचार पनपता है, अनैतिकता को खुलकर खेलने का अवसर मिलता है। और वासना-सीमातीत वासना के कितने कटु परिणाम होते हैं, यह सर्वविदित है, धन-हानि, शक्ति-हानि, प्रतिष्ठाहानि तो होती ही है, जीवन भी संकट में पड़ जाता है।
इसीलिए कहा गया है-काम शूल की तरह चुभने वाला, विष के समान प्राण हरण करने वाला और आशीविष के समान क्षणमात्र में भस्म करने वाला है। यह विषबुझे बाण और तीखे शूलों के समान पीड़ादायी है।
काम अथवा इच्छा या कामना का कोई अन्त नहीं है यह आकाश के समान अनन्त है । इसे समुद्र के समान अन्तरहित' भी बताया गया है।
___ यद्यपि ऐसे दुस्तीर्ण और अनन्त काम (इच्छा समूह-कामना समूह) को वश में करना, इसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, किन्तु विवेकी मार्गानुसारी अपने विवेक से इस दुष्कर कार्य को सरल बनाने का दृढ़तम प्रयास करता है और इस असीम को ससीम बनाकर इस पर विजय प्राप्त करने के लिए सचेष्ट रहता है, कामावेग को वश में रखता है।
गीता में कामात् क्रोधः कहकर क्रोध की उत्पत्ति काम से बताई गई है। इसका अभिप्राय यह है कि मन में किसी प्रकार की कामना उठी, कोई इच्छा उत्पन्न हुई और यदि वह पूरी नहीं हुई तो क्रोध आ गया।
क्रोध वस्तुतः एक आवेग है, ज्वाला है, इसका निवास व्यक्ति के अन्तरंग में है, मन मस्तिष्क में है, इसीलिए इसे आन्तरिक शत्र कहा है, बाह्यरूप में तो इसका प्रगटीकरण होता है।
१ सल्लंकामा, विसंकामा
कामा आसीविसोवमा । २ सत्तिसूलूपमा कामा। ३ इच्छा हु आगाससमा अणं तिया ४ समद्र इव हि काम: नैव कामस्यान्तोऽस्ति ।
-उत्तराध्ययन सूत्र ६/५३
-थेरीगाथा -उतराध्ययन सूत्र
-तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/५
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