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२५८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
खोजने पड़ते हैं, जिन व्यक्तियों के उपकार हैं, उनके प्रति विशेष नम्रता और विनय का व्यवहार भी करना पड़ता है । यह सब उसका कर्तव्य है । इन्हें किये बिना उसके जीवन में नैतिकता का प्रवेश नहीं होता ।
यदि वह अपने कार्यों में हिताहित का विवेक न रखे, अच्छाई-बुराई में से अच्छाई को न चुने, किये हुए उपकार को विस्मृत हो जाय तो समाज और परिवार की दृष्टि में उसे अपयश का भागी बनना पड़ता है, लोक में उसकी बदनामी होती है, अन्य व्यक्तियों की दृष्टि में वह गिर जाता है, सभी उससे दूर-दूर रहने की चेष्टा करते हैं ।
are कोई भी समाज में हेय नहीं बनना चाहता, सभी लोकप्रिय बनना चाहते हैं | मार्गानुसारी की भी लोकप्रिय बनने की इच्छा होती है । इसके लिए वह प्रयास भी करता है ।
लोकप्रियता प्राप्ति के लिए मानव सदैव से लालायित रहा है । वैदिक ऋषि देवताओं से प्रार्थना करता है कि- मुझे सज्जनों का प्रिय बनाओ, मुझे सबका प्रिय बनाओ, कोई भी मुझसे ईर्ष्या और डाह न करे, मैं संसार में मधु से भी अधिक मीठा बनकर रहूँ ।
लेकिन विवेकी और नीति का ज्ञाता व्यक्ति जानता है कि इस प्रकार की प्रार्थनाओं से कोई भी स्थायी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकता, उसके लिए व्यावहारिक ठोस उपाय किये जाने आवश्यक हैं । वे उपाय हैं - सदाचार और सेवा ।
सदाचार का अभिप्राय है - अपना स्वयं का आचरण शुद्ध हो, चरित्र उन्नत हो, व्यवहार में किसी प्रकार का कपट न हो, सभी के साथ मधुरवाणी का प्रयोग किया जाय ।
और सेवा – अभावग्रस्त, रुग्ण और जो लोग किसी भी प्रकार से जरूरतमन्द हैं, उनको यथाशक्ति तन-मन-धन से सहयोग देना, उनके कष्टों, अभावों और पीड़ाओं को कम करने का प्रयास करना, रुग्ण व्यक्ति के औषधोपचार के प्रबन्ध के साथ-साथ तन-मन से उसकी परिचर्या करके उसे स्वस्थ होने में सहयोगी बनना ।
१. ( क ) प्रियं मां कृणु देवेषु प्रियं सर्वस्य पश्यतः । (ख) मा नो द्विक्षत कश्चन । (ग) मधोरस्मि मधुत रो ।
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- अथर्ववेद १६।६२।१ - अथर्ववेद १२।१।२४ —अथर्ववेद १।३४।१
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