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२१८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
है जो अपनी सौरभ से स्वयं तो महकता ही है, अन्य लोगों का जीवन भो सुगन्धित कर देता है।
नैतिक जीवन में यह सभी गुण विशिष्ट भूमिका अदा करते हैं, इन को धारण करने से नैतिक जीवन में चमक आती है, नैतिकता की प्रगति होती है, सद्गुणों का विकास होता है, जीवन सुखी होता है। सम्यक्त्व के अतिचार ___अतिचार का अर्थ है दोष; ऐसा दोष जो सामान्य हो, मामूली हो तथा भूल से लग जाय । सम्यक्त्व के ऐसे ५ अतिचार हैं-१ शंका, २ कांक्षा ३ विचिकित्सा, ४ मिथ्यादृष्टिप्रशंसा ५ मिथ्यादृष्टिसंस्तव ।
इन पांचों अतिचारों को सम्यक्त्व का मल भी कहा गया है । मल का अभिप्राय है जो सिर्फ मलिन करे, नष्ट न करे; जिस प्रकार वस्त्र पर लगा मल वस्त्र को सिर्फ मलिन ही करता है, उसे नष्ट नहीं करता; उसी प्रकार अतिचारों से भी सम्यक्त्व में सिर्फ मलिनता ही आती है, वह नष्ट नहीं होता। फिर भी ये अतिचार सिर्फ जानने योग्य है, आचरण करने योग्य नहीं है ।
इनमें से शंका, कांक्षा और विचिकित्सा-यह तीन अतिचार तो उपरिवणित सम्यक्त्व के आठ अंगों में से प्रथम तीन अंग निश्शंकिता, निष्कांक्षता और निर्विचिकित्सा के विरोधो हैं । जो स्वरूप अंगों का बताया गया है, उससे विपरीत इन दूषणों का स्वरूप होता है।
इनके अतिरिक्त मिथ्यादृष्टिप्रशंसा और मिथ्यादृष्टिसंस्तव मूढ़ता के परिणाम हैं । प्रशंसा का अर्थ मानसिक श्लाघा तथा संस्तव का अर्थ
१ (क) शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ।
-तत्वार्थसूत्र ७/१८ (ख) संका, कंखा, विदिगिंछा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवा ।
-प्रतिक्रमण सूत्र, उपासक दशांग १/७ [नोट-परपाखंड, अन्यदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि-तीनों शब्दों का अभिप्राय
समान है। यहाँ मिथ्यादृष्टि शब्द नीति की अपेक्षा 'अयथार्थ दृष्टि
कोण' अभिधेयार्थ की अपेक्षा करके रखा गया है । -लेखक २ जाणियव्वा न समायरियव्वा ।
–प्रतिक्रमण सूत्र
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