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जैन दृष्टि सम्मत- व्यावहारिक नीति के सोपान | २५३
इसीलिए इन पर धर्म की-नीति की लगाम अथवा अंकुश सदैब रहना आवश्यक है जिससे वे मर्यादित रह सकें। यही इस सूत्र का हार्द है जो नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है।
(१९) अतिथि-सत्कार अतिथि सत्कार भारत की प्राचीन परम्परा है। वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों ही परम्पराएँ इसे गृहस्थी के कर्तव्य के रूप में मान्य करती हैं। वैदिक परम्परा के शास्त्रों में तो इसका अत्यधिक महत्व बताया है।।
___ अतिथि का अभिप्राय है, जिसके आगमन की तिथि-दिन निश्चित न हो । ऐसा व्यक्ति कोई भी हो सकता है।
आचार्य ने अपने सूत्र में अतिथि को तीन वर्गों में विभाजित किया है-- (१) अतिथि, (२) साधु और (३) दीन असहायजन ।
यह सत्य है कि गृहस्थ इन तीनों की यथायोग्य सेवा तथा सहायता करता है; किन्तु इसमें वह विवेक रखता है। पंचमहाव्रतधारी साधुओं को वह श्रद्धाभक्तिपूर्वक आहारादि से प्रतिलाभित करता है, अतिथि का वह स्नेहभावपूर्वक योग्य सत्कार करता है और दीन-दुखी मानवों को वत्सलतापूर्वक अनुकम्पा से दान देकर उनकी सहायता करता है।
इसका कारण यह है कि साधु और दीन-भिक्षुक का स्तर एक सा नहीं होता, उनमें आकाश-पाताल का अन्तर होता है। इसीलिए वह विवेकपूर्वक सहायता-सहयोग देता है।
अतिथि-सत्कार गृहस्थ की उदारता और उदात्त भावना का प्रगटी. करण है । उदारता नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। उदार व्यक्ति ही नैतिक हो सकता है।
(२०-२१) अनभिनिवेशिता और गुणानुराग अभिनिवेश का अभिप्राय है-आग्रह, दुराग्रह, कदाग्रह, अपनी मान्यता को नहीं छोड़ना, उसी का हठ करते रहना, चाहे वह मिथ्या अथवा हानिकारक ही हो। ऐसा हठ नैतिक जीवन के लिए हानिकर है, विवेक और प्रज्ञा के विपरीत है, इसीलिए आचार्य ने सूत्र दिया-सदा ही अनाग्रही बनकर रहे।
जिस व्यक्ति को अपने पक्ष का दुराग्रह नहीं होगा, उसी में गुणानुरा
१ यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । २ सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च ।
-योगशास्त्र १/५३ -~-योगशास्त्र १/५३
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