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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन | १९५
करने में समर्थ, पंच समिति और त्रिगुप्ति से युक्त-यों ३६ गुणों के धारक त्यागीजन मेरे गुरु हैं । '
जिन ( वीतराग- अरिहंत परमेष्ठी) द्वारा कहा हुआ तत्व ही धर्म है । तथा यह अहिंसा, संयम और तप रूप होता है।" वह धर्म भवसागर ( संसार समुद्र) में डूबते हुए प्राणियों को बचा लेता है । दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को धारण करके रखता है, ऊपर ही उठाये रखता है तथा
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उत्तम सुख - यानी मुक्ति में पहुँचा देता है वह धर्म अपनी आत्मा के अनुकूल होता है, समभाव रूप होता है । " किसी अन्य को दुःखकारी नहीं होता ?, मैत्री आदि भावनाओं से युक्त होता है और यह अहिंसा भावना ( कर्म से भी) से परिपूर्ण होता है ।
ऐसा धर्म वीतराग आप्त पुरुष के द्वारा उपदिष्ट होता है ।
अतः सच्चे देव, सच्चे गुरु तथा सच्चे धर्म पर हृदय तथा आत्मा की गहराइयों से श्रद्धा अथवा विश्वास करना सम्यग्दर्शन है ।
१ पंचिन्दिय संवरणो तह नवविह बंभर गुत्तिधरो । विसायमुक्को, इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥ पंचमहव्वयजुत्तो पंचविहायारपालण समत्थो । पंच समिओ तिगुत्तो छत्तीसगुणो गुरुमज्झ ।। २ धम्मो मंगलमुक्कट्ठ अहिंसा संजमो तवो ।
३ सो धम्मो जो जीवं धारेइ भवण्णवे निवडमाणं ।
४ दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः ।
- दशवैकालिक सूत्र १/१
- उपाध्याय यशोविजय : धर्मपरीक्षा
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५धरत्युत्तमे सुखे ।
६ समिया धम्मे आरियेहि पवेइए ।
७ (क) जह मम न पिये दुक्खं, जाणिय एमेव सत्व जीवाणं । (ख) जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो । जं इच्छं परस्स वि य, एत्तियगं जिणसासणं ।।
-आवश्यक सूत्र
दशवै० हारि० वृत्ति १ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार - आचारांग १ | ८|३
----उद्धृत: जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १०८ ८ वचनाद्यनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितं । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ।
- धर्मबिन्दु प्रकरण १
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