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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन | १६७
जैन धर्म में जीव का लक्षण उपयोग' बताया गया है, जिसमें चेतना तथा प्राण-धारण भी गभित है।
चेतना, यह जीव का मुख्य लक्षण है, अन्य किसी भी तत्व में यह नहीं पाई जाती। चेतना का अभिप्राय जीव की जानने, देखने और अनुभव करने की शक्ति है । इस शक्ति के कारण ही जीव सुख-दुख का वेदन करता है तथा आनन्द का अनुभव करता है।
जीवित रहने के लिए प्राण धारण करना आवश्यक है । जैन धर्म में प्राण अन्तरंग और बाह्य-निश्चय तथा व्यवहार दृष्टि से माने गए हैं । जीव के अन्तरंग ४ प्राण हैं-१ ज्ञान, २ दर्शन ३ सुख और ४ वीर्य तथा बाह्य प्राण १० दस हैं
१ श्रोगेन्द्रिय बल प्राण, २ चक्षु इन्द्रिय बल प्राण ३ घ्राण इन्द्रिय बल प्राण ४ रसना इन्द्रिय बल प्राण ५ स्पर्शन इन्द्रिय बल प्राण ६ मन बल प्राण ७ वचन बल प्राण, ८ कायबल प्राण, ६ श्वासोच्छ्वास बल प्राण १० आयु बल प्राण ।
__ जीवों के दो प्रमुख भेद हैं-संसारी और मुक्त। संसारी कर्मबंधनों से युक्त हैं तथा मुक्त जीव इन बंधनों से मुक्त । संसारी जीवों में भी एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीव (वृक्ष, कीट आदि) तथा पंचेन्द्रिय जीवों में पशु-पक्षी आदि नीति की सीमा से परे हैं । सिर्फ मानव ही नीति की सीमा में आता है। जीव के विषय में भगवती सूत्र में कहा गया है
जीवो अणाइ अनिधणो अविनासी अक्खओ धुवो निच्चं अर्थात्-जीव अनादि है,अनिधन है,अविनाशी है, अक्षय है, ध्र व है और नित्य है ।
व्यावहारिक दृष्टि से जीव के यह लक्षण हैं
१ जीव' परिणामी है २ कर्ता है ३ अपने किये कर्मों के फल का भोक्ता है ४ और स्वदेह परिमाण है।
१ (क) जीवो उवओग लक्खणो ।
(ख) उवओग लक्खणे जीवे । (ग) उपयोगो लक्षणम् ।
-उत्तराध्ययन सूत्र २८/१० -भगवती सूत्र, शतक २, उद्देशक १०
-तत्वार्थ सूत्र २/८
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