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नैतिक निर्णय | १७५
पर, समाज में सम्मान बनाए रखने की दृष्टि से मृत्यु भोज देने का निर्णय उसे करना पड़ता है । इसी प्रकार की अन्य रूढ़ियों के पक्ष में उसे निर्णय करना पड़ता है।
यद्यपि नीतिशास्त्र की दृष्टि से ऐसे निर्णय नैतिक नहीं है, किन्तु सम्मान का मूल्य अधिक होने से वह इन निर्णयों को करने के लिए विवश हो जाता है।
किन्तु अपने स्वतन्त्र संकल्प पर ठेस लगने से वह घोर अन्तर्द्वन्द्व में फँस जाता है।
ऐसी जटिल स्थिति से त्राण पाने के लिए जैनाचार्यों ने एक नैतिक मार्ग सुझाया है
जैनियों को सभी लौकिक विधियाँ (रूढ़ियाँ) उसी सीमा तक मान्य हैं, जब तक सम्यक्त्व की हानि न होती हो और व्रतों में दूषण (किसी भी प्रकार का दोष) न लगे।
प्रस्तुत मार्ग का अनुसरण करने से व्यक्ति को नैतिक परिस्थितियों और सामाजिक रूढ़ियों की जटिलताओं से भी उचित विकल्पों और साधनों की प्राप्ति हो जाती है। वह अपनी समन्वयात्मक तथा ऋतम्भरा सत्यग्राहिणी) प्रज्ञा से उचित एवं नैतिक निर्णय ले सकता है तथा उसे बिना किसी को ठेस पहुँचाए कार्यान्वित कर सकता है।
प्रतिक्रिया : अन्य जनों का व्यवहार प्रकृति का यह नियम है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । आप जितनी शक्ति से गेंद को किसी दीवार पर फैकेंगे, टकराकर वह उतने ही वेग से वापिस लौटेगी।
प्रकृति का यह सिद्धान्त मानव समाज और मानव मन पर भी लागू होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसका अन्य व्यक्तियों से सम्पर्क रहता है, अतः अन्य व्यक्तियों के व्यवहार की प्रतिक्रिया मानव मन पर होती है तथा मानव जैसी भी किया अन्य व्यक्तियों के साथ करता हैं, उसकी प्रतिक्रिया अन्य व्यक्तियों पर होती है ।
११. सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणं ।।
-सोमदेव सूरि-उपासकाध्ययन
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