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नैतिक मान्यताएं | १६१ आत्मप्रियता और आत्माभिव्यक्ति निम्न कोटि की स्वतन्त्रता है, जिसका नीतिशास्त्र में कोई विशेष स्थान नहीं है। ऐसे कार्य ऐच्छिक कार्य (voluntary actions) होते हैं, जिनकी गणना नैतिकता में नहीं होती ऐसे व्यक्ति को नीति-निरपेक्ष (amoral) कहा जा सकता है।
आत्मसंयम, आत्मनिर्धारण और आत्मपूर्णता क्रमशः उच्च, उच्चतर और उच्चतम स्तर की नैतिक स्वतन्त्राएँ हैं।
इस विवेचन का सार यह है कि नीतिशास्त्र में स्वतन्त्रता-स्वतन्त्र इच्छा या संकल्प की स्वतन्त्रता के साथ उत्तरदायित्व का प्रत्यय भी जुड़ा हुआ है; यानी स्वतन्त्रता असीमित नहीं है।
सर्वोपरि आधार स्वतन्त्रता, संकल्प अथवा इच्छा की स्वतन्त्रता नीतिशास्त्र का सर्वोपरि आधार है। अन्य जितने भी दार्शनिक आधार हैं, यथा-हेतुवादफलवाद, आत्मा की अमरता, प्रगति की अनिवार्यता, ईश्वरीय सत्ता का स्वीकार आदि, इन सबकी सार्थकता स्वतन्त्रेच्छा में है।
यदि व्यक्ति में स्वतन्त्रता का तत्व ही स्वीकार न किया जायेगा तो नीतिशास्त्र द्वारा निर्धारित नैतिक कर्तव्यों के पालन के लिए मानव कैसे प्रस्तुत होगा, साथ ही अनैतिक कार्यों के लिए भी इसे कैसे उत्तरदायी ठहराया जा सकेगा।
इसीलिए कहा गया है-वास्तव में स्वतन्त्रता नैतिक नियम का अस्तित्व तत्व है और नैतिक नियम स्वतन्त्रता का ज्ञान तत्व है ।।
इसका अभिप्राय यह है कि नैतिक नियमों का अस्तित्व ही स्वतन्त्रता पर निर्भर है और स्वतन्त्रता का ज्ञान ही नैतिक नियम है।
___आशय यह है कि मानव अपनी स्वतन्त्रता को समझेगा, सही स्थिति को जानेगा तभी वह नैतिक नियमों का पालन कर सकेगा।
वस्तुतः नीति-पालन का ध्येय भी आत्म-स्वातन्त्र्य की प्राप्ति ही है। क्योंकि भारतीय और भारतीयेतर सभी नीतिशास्त्री इस एक लक्ष्य पर सहमत हैं कि-नीति का उद्देश्य निःश्रेयस् और सुख की प्राप्ति है । और यह पूर्ण सुख आत्मा के सभी बन्धनों से मुक्त होने पर प्राप्त होता है।
अतः स्वतन्त्रता नीतिशास्त्र का सर्वोपरि आधार है। ।
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Freedom is the ratio essendi of the moral law, while the moral law is the ratio cognoscendi of freedom.-Kant.
-See, Kant's selection, p. 339, footnote.
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