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१६६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन जैन दर्शन का वर्गीकरण
जैन दर्शन में मूल प्रवृत्तियों के समकक्ष 'संज्ञा' शब्द को माना जा सकता है । वहाँ इसका (संज्ञाओं का) वर्गीकरण तीन रूप में मिलता है ।
(१) प्रथम वर्गीकरण-(१) आहार संज्ञा (२) भय संज्ञा (३) मैथुन संज्ञा और (४) परिग्रह संज्ञा
(२) द्वितीय वर्गीकरण-(१) आहार, (२) भय (३) मैथुन (४) परिग्रह (५) क्रोध (६) मान, (७) माया (८) लोभ (6) लोक और (१०) ओघ (सामान्य)।
(३) तृतीय वर्गीकरण-(१) आहार, (२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह, (५) सुख, (३) दुःख, (७) मोह, (८) विचिकित्सा (वृणा), (8) क्रोध, (१०) मान, (११) माया, (१२) लोभ, (१३) शोक, (१४) लोक (१५) धर्म और (१६) ओघ ।
इन वर्गीकरणों में संसार के सभी जीवों (क्षुद्र कीट, पशु-पक्षी और मानव) इन सबकी शारीरिक, मानसिक सभी प्रेरणाओं का समावेश हो जाता है। मैक्डूगल द्वारा प्रतिपादित १४ मूलप्रवृत्ति और उनसे संलग्न सभी संवेग इनमें गर्भित हैं। मैक्डूगल जिसे समूह भावना कहता है, जैन दर्शन में उसे ओघ संज्ञा कहा है।
प्रथम वर्गीकरण में सिर्फ शारीरिक प्रेरक गिनाये गये हैं; जबकि द्वितीय और ततीय वर्गीकरण में शारीरिक के साथ-साथ मानसिक-सामाजिक सभी प्रेरकों को समाविष्ट कर लिया गया है।
इस प्रकार जैन दर्शन का प्रेरकों का वर्णन अधिक वैज्ञानिक और सम्पूर्ण लगता है।
इन संज्ञाओं के साथ-साथ जैन दर्शन ने लेश्याओं का भी वर्णन किया है । लेश्यायें ६ हैं
(१) कृष्णलेश्या-अधिक क्रूर और क्लिष्ट मनोभावनाएँ । (२) नीललेश्या-कृष्णलेश्या की अपेक्षा कम क्रूर तीव्र मनोभनाएँ।
१. समवायांग ४।४
२. प्रज्ञापना, पद ८ ३ आचारांग, शीलांक वृत्ति, पत्रांक ११ ४ उत्तराध्ययन सूत्र, लेश्या अध्ययन, ३४/२१-३२
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