________________
१५८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अनैतिक आचरण करके अपने और परिवार तथा समाज के लिए त्रासदायी बन जाता है ।
अतः यह सिद्धान्त भी अपूर्ण और एकांगी है ।
आत्मनियमिततावाद या आत्मनियन्त्रणवाद - मध्यममार्गी है । यह इच्छा - स्वातंत्र्य को न नियत मानता है और न इसको असीमित स्वतंत्रता प्रदान करता है, अपितु संकल्प - स्वातंत्र्य को आत्मा द्वारा नियन्त्रित तथा नियमित स्वीकार करता है । नीतिशास्त्र में इसे आत्म-निर्धारणंवाद (Self-determinism ) कहा गया है ।
आत्म-निर्धारण के दो तत्व हैं - ( १ ) प्रतिषेधक और ( २ ) विधायक । प्रतिषेधक का अर्थ बलात्कार या दबाब से रहितता है और विधायक आत्मा का अपना निजी निर्धारण है । दूसरे शब्दों में प्रतिषेधक तत्व पर की अपेक्षा से है और विधायक तत्व स्व की अपेक्षा से ।
ज्यों-ज्यों चरित्र का विकास होता है, नैतिकता का स्तर उच्च से उच्चतर होता है त्यों-त्यों स्वतंत्र इच्छा का - आत्म-निर्धारण का विधायक तत्व प्रबल होता जाता है और अन्य निर्धारण का तत्व क्षीणतर होता जाता है ।
चूँकि आत्म-निर्धारण का विधायक तत्व स्वापेक्षित है तथा इम बात पर निर्धारित है कि आत्मा कितना अपने को अन्य निर्धारण से बचाती है; अतः अन्य निर्धारण की अपेक्षा से नीतिशास्त्र में इस प्रतिषेधक तत्व का अधिक महत्व है । व्यावहारिक होने से इस प्रतिषेधक तत्व के कई तारतम्य भी हैं ।
•
स्वतन्त्रता का तारतम्य
प्रतिषेधक तत्व के अनुसार स्वतन्त्रता के कई अर्थ हैं और इन अर्थों में तारतम्य है । यह तारतम्य निम्न स्तर से उच्च स्तर तक है । नैतिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति उच्च स्तर पर तुरन्त स्वतन्त्र नहीं हो सकता; हाँ, निम्न स्तर पर स्वतन्त्र हो सकता है ।
स्वतंत्रता के तारतम्य नीतिशास्त्रियों द्वारा निम्न प्रकार से निर्धारित किये गये हैं
(१) एक प्रेरणा के विषयों में चुनाव - जब मनुष्य अपनी किसी प्रेरणा के विषय में चुनाव करता है तो उस समय अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करता है। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति नया सूट सिलवाना चाहता है तो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org