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१२४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
के चुकाने के उपाय में अन्तर है, कहा है- यदि इन्हें शुद्ध धर्म साधना की ओर उन्मुख कर दिया जाय तो व्यक्ति इनके ऋणों से मुक्त हो सकता है |
यह तीनों ऋण मानव के नैतिक कर्तव्य हैं । यह नैतिक प्रत्यय इस रूप में हैं कि इनकी अवधारणा के फलस्वरूप मानव अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को नीतिपूर्ण ढंग से पूरा करता है, साथ ही अपने देव, गुरु, पिता आदि वृद्धजनों के प्रति उसके हृदय में सम्मान रहता है ।
वस्तुतः यह तीनों प्रकार के ऋण उपकार के प्रति प्रत्युपकार हैं । माता-पिता, गुरु (शिक्षक) आदि मानव के जीवन को संस्कारशील और नैतिक बनाते हैं, तो इनके उपकार से उऋण होने के लिए उसे भी उनकी सेवा आदि करनी चाहिए ।
समस्त नैतिकता का आधार परिवार, समाज और उचित शिक्षा है । इनके अभाव में नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसी - लिए त्रि ऋण विचार को नैतिक प्रत्ययों में स्थान दिया गया है कि मानव का जीवन नैतिक बने, वह समाज के महत्व को स्वीकार करे और अपने व्यवहार से अन्य लोगों को भी नैतिकता की प्रेरणा दे ।
पुरुषार्थ चतुष्टय विचार
पुरुषार्थ भारतीय नीतिशास्त्र का मौलिक प्रत्यय है । पुरुषार्थ का संधि-विग्रहजनित अर्थ होता है पुरुष का प्रयोजन ( पुरुष + अर्थ ) दूसरे शब्दों में मानव मात्र का प्रयोजन । श्री आर. सी. पाठक ने इसी अर्थ को ध्वनित करते हुए पुरुषार्थ के लिए अंग्रेजी का समानार्थी एक वाक्यांश दिया हैobjects of man's creation and existence.
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पुरुषार्थ प्रत्यय चार प्रकार का है - - ( १ ) धर्म (२) अर्थ (३) काम (४) मोक्ष | यह चारों ही नैतिक मानव की सहज स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ कही जा सकती हैं । इनमें से धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों को त्रिवर्ग भी कहा जाता है और इन्हें मोक्ष पुरुषार्थ का साधन बताया है ।
साधन और साध्य की अपेक्षा करते हुए पं० सुखलाल जी संघवी ने
१ ठाणांग, ठाणा ३, सूत्र १३५
२ पंडित सुखलालजी : तत्वार्थसूत्र Eng. Translation by K. K. Dixit, p. 1
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