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नैतिक प्रत्यय | १२१
यह जन्मना नहीं थे, जैसाकि वैदिक परम्परा में है, अपितु यह परिवर्तनीय थे ।
आश्रम व्यवस्था, यद्यपि जैन धर्म में स्वीकार की गई है, किन्तु समुचित रूप में, इसमें वैसी कठोरता (rigidity) नहीं है, जैसी वैदिक परम्परा में है । कठोरता का अभिप्राय यह है कि वैदिक परम्परा में चारों आश्रमों का पालन क्रमशः होता है - पहले ब्रह्मचर्य फिर गृहस्थ, तदुपरान्त वानप्रस्थ और जीवन के अन्त में संन्यास |
वैदिक परम्परा के अनुसार ब्रह्मचर्य से व्यक्ति सीधा संन्यास नहीं ले सकता, उसका यह कार्य गर्हित और अनैतिक माना जाता है । वहाँ गृहस्थाश्रम पालन की अनिवार्यता 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' - ' पुत्रहीन की गति नहीं होती, उसकी आत्मा प्रेतयोनि में ही भटकती रहती है', इन शब्दों में प्रख्यापित की गई है ।
जबकि जैन दृष्टि आश्रमों के इस अनुल्लंघनीय क्रम को स्वीकार नहीं करती। जैनागमों में 8 वर्ष का बालक भी दीक्षा ले सकता है, इस बात का स्पष्ट विधान है। स्वयं भगवान महावीर ने ६ वर्ष के बालक 'अतिमुक्तक" (अयवंता ) को अपने कर-कमलों से दीक्षित किया था और उसने संसार के जाल को तोड़कर मुक्ति प्राप्त की थी ।
भृगु-पुरोहित और उसके पुत्रों के संवाद में अपुत्रस्य गतिर्नास्ति के सिद्धान्त का खण्डन बड़े ही युक्तिपूर्ण ढंग से किया गया है । 2
इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भगवान महावीर ने गृहस्थाश्रम को बिल्कुल ही हेय बताया । अपितु सत्य यह है कि उन्होंने गृहस्थाश्रम को उचित महत्व दिया है, स्वयं अपने श्रीमुख से श्रावक (गृहस्थ ) धर्म का उपदेश दिया और श्रावकों के तत्वज्ञान तथा सत्यनिष्ठा की प्रशंसा की ।
१ (क) अन्तकृद्दशांग, वर्ग ६
(ख) भगवती, शतक ५, उ० ४
२ उत्तराध्ययन सूत्र, इषुकारीय १४वां अध्ययन
३ (क) उपासक दशांग सूत्र में भगवान द्वारा किया गया श्रावक धर्म का वर्णन है । (ख) चरित धम्मेदुविहे, तं जहा - अणगार धम्मे चेव आगार धम्मे चेव ।
- ठाणांग सूत्र, ठाणा २
४ उपासकदशांग सूत्र अ० १
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