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नैतिक प्रत्यय | ११६
(२) गृहस्थाश्रम ( २६ से ५० वर्ष तक की आयु ) - शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है । न्याय-नीति द्वारा जीविका उपार्जन करके कुटुम्ब का पालन पोषण, माता पिता आदि वृद्धजनों की सेवा, अतिथिसत्कार, दान आदि द्वारा जीवन सफल बनाता है । पुत्रपुत्रियों को योग्य - शिक्षित बनाकर अपने गृहस्थ धर्म का सुचारु रूप से संचालन करता है ।
(३) वानप्रस्थ आश्रम (५१ से ७५ तक की आयु ) - इस आयु में पुत्र को घर-गृहस्थी का भार सौंप कर धर्म आराधना के लिए घर छोड़कर वन (ग्राम के बाहर की भूमि) में चला जाय । यदि पत्नी साथ रहना चाहे तो उसे भी रख सकता है, किन्तु मुख्य लक्ष्य धर्म - साधना का ही रहता है ।
(४) संन्यासाश्रम (७६ से १०० वर्ष तक की आयु ) - इस समय पत्नी को भी त्याग दे और सभी से ममत्व छोड़कर ईश्वर भक्ति, तप-जप- साधना आदि में प्रवृत्त हो जाये ।
इस प्रकार अपने सम्पूर्ण मानव जीवन को सफल करे ।
सौ वर्ष के जीवन की अवधारणा सामवेदोक्त 'जीवेम शरदः शतं' के आधार पर निर्मित की गई है । सो वर्ष की नीरोग, स्वस्थ आयु अथवा जीवन की सीमा वैदिक युग के मानव की आकांक्षा एवं चरम अभिलाषा रही थी ।
जैन दृष्टि - जहाँ तक वर्ण, जाति और आश्रम -- वैदिक समाज के नैतिक प्रत्ययों का प्रश्न है, जैन दृष्टि में इनका कोई स्थान नहीं है । भ० महावीर ने जाति एवं वर्ण को पूरी तरह नकार दिया था । उन्होंने सम्पूर्ण मानवों की एक ही जाति स्वीकार की थी । वर्ण और जाति के आधार पर मानव-मानव में भेद करना जैन दृष्टि से अनुचित ही नहीं, अनैतिक भी है।
भगवान महावीर ने आचारांग में स्पष्ट उद्घोष किया- जो उपदेश धनवान अथवा उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश निर्धन विपन्न और निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है ।
यही कारण था कि भ. महावीर के श्रमण संघ में चारों वर्णों के साधु थे । एक ओर ब्राह्मण वर्ण के वेदपाठी इन्द्रभूति गौतम थे तो चौदह हजार
१ जहा पुन्नस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ |
जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुन्नस्स कत्थई ॥
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- आचारांग सूत्र १/२/६/१०२
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