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६६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
यही कारण है कि न्याय, नीतिशास्त्र का प्रमुख विवेच्य है। कर्तव्य का विवेचन
कर्तव्य का सम्बन्ध न्याय के साथ घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है। कर्तव्य के अभाव में न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस समाज के व्यक्ति कर्तव्यशील नहीं होंगे, वहाँ न्याय की व्यवस्था भी नहीं टिक सकेगी।
नागरिकशास्त्र और राजनीतिशास्त्र कर्तव्य के साथ अधिकार का सम्बन्ध मानते हैं। उनके मत में कर्तव्य और अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू (two sides of the same coin) हैं। उन अधिकारों में वे न्याय का अधिकार भी सम्मिलित करते हैं।
नीतिशास्त्र की मान्यता यह है कि कर्तव्य और न्याय का अविनाभावी सम्बन्ध है और चूंकि कर्तव्यों का निर्धारण करना, नीतिशास्त्र का कार्य है। अतः वह न्याय के साथ कर्तव्यों का विवेचन भी करता है।
__यह तथ्य है न्याय व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति के कर्तव्य निर्धारित होते हैं और कर्तव्यों का उचित परिपालन न्याय व्यवस्था का आधार है ।
इनमें से कुछ कर्तव्य तो व्यक्ति के लिए सामान्य होते हैं, उदाहरणार्थ-सत्य बोलना, उचित व्यवहार करना, अपशब्द न बोलना आदि ।
और कुछ कर्तव्य ऐसे होते हैं जो समाज में व्यक्ति के पद के अनुसार निर्धारित किये जाते हैं जैसे—गुरु और शिप्य के कर्तव्य । धनी-निर्धन, स्वामि-सेवक, पति-पत्नी आदि के कर्तव्य ।
भारतीय समाज व्यवस्था में विभिन्न वर्ण, आश्रम, जाति आदि के आधार पर भी कर्तव्यों का निर्धारण हुआ है।
कर्तव्यों का आधार कुछ भी हो, किन्तु उनका परिपालन सामाजिक सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है । नीतिशास्त्र भी इन कर्तव्यों का निर्धारण करता है और इनके परिपालन पर काफी बल देता है।
पश्चिमी मनीषी काण्ट तो नीतिशास्त्र को कर्त्तव्यशास्त्र ही मानता है। वह कर्तव्य (duty) और नैतिक नियम (moral laws) के प्रत्यय के
१. एवं कर्तव्यमेवं न कर्तव्यमित्यात्मको यो धर्मः सा नीतिः ।
__-द्याद्विवेद (नीतिमंजरी)
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