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६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
और न्याय तथा कर्त्तव्य पालन की स्थिति श्रेय के प्रत्यय में है । इसीलिए नीतिशास्त्र श्रय का विवेचन करता है ।
क्या है ? अय क्या है ? श्रेय की प्राप्ति कैसे और किस प्रकार हो सकती है ? इन सब प्रश्नों का उत्तर नीतिशास्त्र देता है ।
पश्चिमी विचारकों हेगेल तथा काण्ट ने न्याय तथा कर्त्तव्य को ही मूल माना है, किन्तु भारतीय विचारकों ने श्रेय को न्याय व कर्तव्य से श्र ेष्ठ स्वीकार किया है ।
भगवान महावीर ने कहा है- मनुष्य को धर्म सुनना इसलिए आवश्यक है कि उससे उसे श्र ेय और अय का ज्ञान हो जाता है और श्रेयअय को जानने के बाद जो श्रेय है, जीवन में हितकारी है उसका आचरण उसे करना चाहिए ।"
कठोपनिषद् में भी श्रय और प्रेय का विवेचन करने के बाद श्र के आचरण की प्रेरणा दी गई है । 2
यहां विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिमी नीतिशास्त्र न्याय एवं कर्त्तव्य का विवेचन श्रेय ( good ) के साथ करता है । 'कोई कार्य अथवा व्यापार य क्यों है ? क्योंकि यह न्यायमूलक है ।' यह हेगेल धारणा है और कांट 'किसी कार्य या क्रिया अथवा व्यापार को श्रेय इसी कारण मानता है कि वह कर्त्तव्य के अनुसार है ।'
किन्तु भारतीय दर्शन, दूसरे शब्दों में नीतिशास्त्र, जब न्याय एवं कर्त्तव्य के क्षेत्र से आगे बढ़कर श्रेय के क्षेत्र में पहुँचता है तो वह धर्मशास्त्र बन जाता है। जहां न्याय एवं कर्त्तव्य में विरोध का आभास होता है वहां श्रेय उनका निर्णय करता है । इसीलिए श्र ेय धर्मशास्त्र का प्रतिनिधि बनता है, और धर्म के क्षेत्र में आता है ।
आचार्य जिनदास गणी ने कहा है- "सभी धर्म या कर्त्तव्य सिद्धि के साधन नहीं हो सकते, किन्तु जो जिसके योग्य अथवा श्रेय का अनुगामी है, वह साधन होता है । "
१. जं सेयं तं समायरे ।
२.
श्रश्यच प्रेयश्च मनुष्ामेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः । श्रोहि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।।
--- दशवैकालिक ४/११
— कठोपनिषद् २।१।२
३. धम्मो वि जओ सव्वो न साहणं किन्तु जो जोग्गो । – विशेषावश्यकभाष्य ३३१
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