Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के... xivil के द्रष्टा बनकर ही सदाचार का अनुसरण किया जा सकता है अत: इसे चतुर्थ क्रम पर रखा गया है।
इस अध्याय में प्रव्रज्या के संदर्भ में कई नवीन पहलुओं को उजागर करते हुए शास्त्रीय विमर्श किया गया है।
पाँचवें अध्याय में मण्डलीतप विधि की तात्त्विक विचारणा की गई है। जैन धर्म की कुछ परम्पराओं में मण्डली के सात दिन के योग करवाने के पश्चात् ही नव दीक्षित मुनि को सामूहिक मण्डली में प्रवेश दिया जाता है। इससे पूर्व नवदीक्षित साधु-साध्वी प्रतिक्रमण, आहार, स्वाध्याय आदि समुदाय में नहीं कर सकते। इसी दृष्टि से मण्डलीतप विधि को पांचवां स्थान दिया गया है।
छठवें अध्याय में केश लोच की आगमिक विधि बतलाते हुए उसके अपवाद बताए गए हैं। इसी क्रम में केश ढुंचन आवश्यक क्यों, केश लुंचन न करने से लगने वाले दोष, मुनि किन स्थितियों में लोच करवाए ऐसे अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। __ केशलोच मुनि जीवन का अपरिहार्य अंग है। दीक्षा केश लोच पूर्वक होती है। इसके द्वारा प्रवजित या उपस्थापित साधक कष्ट सहिष्णु एवं आत्माभिमुखी बनता है।
इस शोध खण्ड के सातवें अध्याय में उपस्थापना विधि का रहस्यमयी अन्वेषण प्रस्तुत किया है।
इस तरह प्रव्रज्या सदाचार समन्वित प्रक्रिया है। सम्यक चारित्र का आधार है। धर्म का केन्द्र स्थल है। कहा भी गया है- 'चारित्तं खलु धम्मो' चारित्र निर्माण निश्चय ही धर्म है। यहाँ उपस्थापना यानी पंचमहाव्रत का आरोपण चारित्र धर्म का द्वितीय सोपान है।
इन अनुष्ठान के द्वारा नूतन मुनि को यथोक्त तपोनुष्ठान करवाकर उसे साधुओं की मंडली में प्रवेश दिया जाता है तथा पाँच महाव्रतों पर स्थापित करके श्रमण-श्रमणी संघ का स्थायी सदस्य बनाते हैं।
पाँच महाव्रतों का निर्दोष परिपालन मोक्ष का अनन्तर कारण है। इसी उद्देश्य से यह विधि अन्तिम चरण पर कही गई है।
समाहारतः सामायिक आदि व्रतों का स्वीकार और केशलूंचन आदि क्रियाएँ चेतनात्मक विकास के हेतुभूत की जाती हैं, जिसका परम लक्ष्य मुक्ति मार्ग का वरण करना है।