Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 61
आदि के भय की स्थिति में वह दौड़ नहीं सकता, अतः शरीरजड्ड दीक्षा के
अयोग्य है।
करणजड्डु
यहाँ करण शब्द क्रिया अर्थ का वाचक है। तदनुसार समिति-गुप्ति, प्रतिक्रमण, पडिलेहण, व्रत आदि संयम क्रियाओं को पुनः पुनः समझाने पर भी नहीं समझने वाला करणजड्ड कहलाता है।
दोष - क्रियाओं का यथावत ज्ञान न होने के कारण वह चारित्र का सम्यक पालन नहीं कर सकता है इससे संयम विराधना होती है।
6. रोगी - जो भगन्दर, अतिसार, कुष्ठ, कफ, खाँसी और ज्वरादि रोगों से ग्रस्त हो ।
दोष - रोगी को दीक्षा देने पर चिकित्सा कराने में छः काय जीवों की विराधना होती है। रोगग्रस्त रहने से या रोगी की सेवा करने से स्वाध्याय हानि भी होती है।
7. स्तेन - जो चोरी करने की आदत वाला हो ।
दोष - चौर्य-कर्म करने वाला साधु गच्छ के लिए वध, बन्धन, ताड़ना, तर्जना आदि अनर्थ का कारण होने से दीक्षा के अयोग्य है ।
8. राजापकारी - जो राजद्रोही हो या राज्य विरुद्ध कार्य करने वाला हो । दोष – राजद्रोही व्यक्ति को दीक्षा देने पर राजा क्रुद्ध होकर मृत्यु दण्ड, देश निकाला आदि दे सकता है।
जो भूत-प्रेत आदि से आवेष्टित हो या मोह के प्रबल उदय
9. उन्मत्त से पराधीन हो ।
दोष - उन्मत्त को दीक्षित करने पर भूत आदि रुष्ट होकर अन्य साधुओं का अनिष्ट कर सकते हैं, स्वाध्याय, ध्यान आदि में हानि पहुँचा सकते हैं। उन्मत्त के कारण मुनि संघ को अनेक प्रकार की परेशानियाँ भी हो सकती है इसलिए उन्मत्त दीक्षा के अयोग्य है।
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10. अदर्शन - जो व्यक्ति नेत्रहीन और स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला है वह दीक्षा के अयोग्य कहा गया है।
दोष – नेत्रहीन व्यक्ति षट्कायिक जीवों की रक्षा करने में असमर्थ होता है । उसके कील, काँटे युक्त विषम स्थानों पर गिरने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला व्यक्ति क्रुद्ध होने पर किसी साधु को मार सकता है।