Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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148... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
गये हैं। इसके अतिरिक्त वार, तिथि, दिशा आदि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है। इस सन्दर्भ में सुस्पष्ट वर्णन विधिमार्गप्रपा में निम्नवत दृष्टिगत होता है
तिथि एवं दिशा - आचार्य जिनप्रभसूरि के अनुसार एकम और नवमी को पूर्व दिशा में, तृतीया और एकादशी को आग्नेयकोण में, पंचमी और त्रयोदशी को दक्षिण दिशा में, द्वादशी (बारस) और चतुर्थी को नैऋत्य कोण में, षष्ठी और चतुर्दशी को पश्चिम दिशा में, सप्तमी और पूर्णिमा को वायव्य दिशा में, अष्टमी और अमावस्या को ईशानकोण में मुख करके लोच करना या करवाना चाहिए।
वार - केशलोच के लिए सोम, बुध, गुरु, शुक्र ये चार वार श्रेष्ठ माने गये
हैं। 10
नक्षत्र - गणिविद्या के अनुसार केशलोच हेतु हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, पुनर्वसु, रोहिणी एवं पुष्य नक्षत्र प्रशस्त हैं। 11 विधिमार्गप्रपा के मतानुसार पुष्य, पुनर्वसु, रेवती, चित्रा, श्रवण, धनिष्ठा, मृगशिरा, अश्विनी और हस्त- इन नक्षत्रों को शुभ मानना चाहिए। 12
गणिविद्या के निर्देशानुसार पुनर्वसु, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा इन चारों नक्षत्रों में केशलोच की क्रिया करनी चाहिए। 13 गणिविद्या एवं विधिमार्गप्रपा के अनुसार कृतिका, विशाखा, मघा एवं भरणी इन चार नक्षत्रों में कभी भी लोच नहीं करना चाहिए।14
विधिमार्गप्रपाकार ने यह निर्देश भी दिया है कि लोच करवाते समय योगिनी को बायीं ओर अथवा पीठ पीछे रखनी चाहिए तथा लोच करवाने वाले साधु का चन्द्रबल भी देखना चाहिए ।
आचारदिनकर में लोच मुहूर्त का निर्वचन करते हुए कहा गया है कि क्षौरकर्म के नक्षत्र न होने पर भी क्षौरकर्म की उत्सुकता हो तो हस्त, चित्रा, स्वाति, मृगशीर्ष, ज्येष्ठा, रेवती, पुनर्वसु, श्रवण एवं धनिष्ठा नक्षत्र में क्षौरकर्म करना शुभ है। जैसा कि कहा गया है कार्य उत्सुकता की स्थिति में, तीर्थ में, प्रेतक्रिया के समय, दीक्षा एवं जन्म के समय, माता-पिता की मृत्यु क्षौरकर्म कराने हेतु नक्षत्रादि का चिन्तन नहीं करना चाहिए। 15
के समय