Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 249 हितार्थ उन पर अनुशासन करना, उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें उस क्षेत्र में प्रवृत्त करना तथा योग्यता न होने पर शिष्य में आवश्यक कलाओं को विकसित करना आदि सामूहिक प्रबन्धन के लिए सर्वश्रेष्ठ सूत्र हैं। सामाजिक एवं सामुदायिक कार्यभार अधिक होने पर भी गुरु किस प्रकार प्रत्येक कार्य को सम्यक् रूप से संचालित करते हुए आत्मसाधना में निमग्न एवं प्रसन्नचित्त रहते हैं इस तरह की प्रवृत्तियाँ देखने से तनाव मुक्ति के उपाय हासिल होते हैं। निश्रावर्ती शिष्यों और लघु गुरुभ्राताओं आदि में आध्यात्मिक साधना का विकास एवं अनुशासन आदि की व्यवस्था का ज्ञान होता है। इस प्रकार उपस्थापना के माध्यम से वैयक्तिक, सामुदायिक, व्यावहारिक, वाणी आदि कई प्रबन्धनों के रहस्यों को अनुभूत किया जा सकता है। हम साधु जीवन को प्रबन्धन की पाठशाला (स्कूल ऑफ मैनेजमेण्ट) की उपमा दे सकते हैं। - उपस्थापना के दौरान सत्य वाणी का प्रयोग करने से शिष्य की वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ कूट-कपट, दम्भ-माया, निन्दा-कलह, परपीड़न आदि से रहित होकर कल्याणकारी तथा कार्य सफलता में सहायक होती हैं। इस प्रकार वाणी, कषाय, जीवन आदि के प्रबन्धन का समुचित विकास होता है।
उपस्थापना संस्कार की उपयोगिता को आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में देखा जाए तो इससे वैयक्तिक समस्याएँ जैसे मान-अपमान, ज्ञान दम्भ, अज्ञानता के कारण हीन भाव, स्पर्धात्मक मानसिकता के कारण घटती सुख शान्ति एवं आत्महत्या के हेतुभूत पारिवारिक कलह का निवारण हो सकता है, क्योंकि मुनि तो प्रत्येक स्थिति को समभाव से सहन करता है जिससे तनाव आदि उत्पन्न ही नहीं होता तथा अपरिग्रह, अचौर्य आदि वृत्तियों के माध्यम से इच्छाओं पर भी नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है। __नव दीक्षित जिस समुदाय या मण्डली में परिवार सदृश अपनत्व से रहता है वहाँ गुर्वाज्ञा एवं सहवर्ती मुनियों के सेवाभाव को प्रमुखता देने से सामुदायिक क्लेश आदि उत्पन्न नहीं होते। समाज में नैतिकता एवं धर्म की स्थापना होती है। उपस्थापित मुनियों के सत्संग में रहने से सामाजिक समस्याएँ जैसेसाम्प्रदायिक उन्माद, पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता प्रभाव, आधुनिक भोगवाद, पूज्यों के प्रति घटता सम्मान आदि समस्याएँ स्वत: तिरोहित हो जाती हैं। गृहस्थ व्यक्ति फिर भी अपने परिवार में बंटवारा कर अलग रह जाता है, किन्तु साधु समुदाय में सब कुछ गुर्वाज्ञा पर आधारित होता है। यदि शिष्य गुरु से पृथक् हो