Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 310
________________ 248...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता अस्थायी (Temporary) नौकरी स्थायी (Permanent) होने पर जो मानसिक अनुभूतियाँ होती है वही इसके विषय में भी जाननी चाहिए। समस्त विश्व के प्रति हित एवं कल्याण की भावना के कारण सम्पर्क में आने वाले लोगों में भी यही भाव निर्मित होते हैं। वैचारिक प्रदूषण घटता है। जीवन में असत्य, हिंसा आदि के लिए अवकाश ही नहीं रहने से उसमें होने वाले व्यर्थ के मानसिक श्रम की बचत होती है। वैयक्तिक स्तर पर उपस्थापना संस्कार से संकल्पशक्ति सर्जित होती है। पंचमहाव्रतों एवं तत्सम्बन्धी नियमों के श्रवण से मुनि को स्वमर्यादा का ज्ञान होता है। मुनि धर्म की आवश्यक क्रियाओं के प्रति सजगता बढ़ती है। स्वयं को परिस्थिति एवं समुदाय के अनुकूल बनाने हेतु अहंकार का दमन एवं कषायों का उपशमन कर दुर्गुणों को दूर करने का प्रयास होता है। समुदाय में पूर्णरूपेण सम्मिलित होने से तज्जनित कार्यों में भी सहर्ष रूप से सम्मिलित हो सकता है। अन्य कार्यों में प्रवृत्ति न होने से आध्यात्मिक विकास में अग्रसर हो सकता है। गुरु एवं गीतार्थ समुदाय के सम्पर्क में रहने से स्वयं किसी भी प्रकार के उत्तरदायित्व से मुक्त रह सकता है। यदि सामाजिक स्तर पर उपस्थापना-विधि की मूल्यवत्ता देखें तो निम्न लाभ परिलक्षित होते हैं - सामान्य गृहस्थ को साधु जीवन की कठिनता एवं उनके नियमों का ज्ञान होता है जिससे संयमी जीवन के प्रति अनुमोदना के भाव जागृत होते हैं। स्व कर्तव्यों का भान होता है। सामान्य जन संयम की ओर प्रवृत्त होते हैं। किसी भव्य जीव को संयम ग्रहण की प्रेरणा मिल सकती है तथा आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि जो उपस्थापना हेतु पधारे हैं उनकी सेवा एवं वाणी श्रवण का लाभ संघ समाज को मिल सकता है। यदि उपस्थापना विधि का प्रबन्धन के सन्दर्भ में विचार किया जाए तो उपस्थापना में व्यक्ति प्रबन्धन से लेकर समाज प्रबन्धन आदि में सहयोगी कई सूत्र उपलब्ध होते हैं। उपस्थापना के माध्यम से साधक वैयक्तिक साधना को स्वीकार करते हुए समूह से जुड़ता है। अपनी प्रत्येक इन्द्रिय चेष्टा को नियन्त्रित करते हुए मन, वाणी, भाषा एवं कायिक क्रियाओं आदि पर सम्पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है जिससे स्वशक्ति एवं वीर्य में संवर्धन होता है। सामूहिक रूप में किस प्रकार एक-दूसरे के साथ सामञ्जस्य बिठाकर चलना अथवा नियोजन पूर्वक रहना आदि की विशेष कला का ज्ञान होता है। गुरु के द्वारा शिष्यों के

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