Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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246...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
उपस्थापना व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानों के रहस्य
उपस्थापना काल में सम्पादित किये जाने वाले विधि-विधानों के कुछ प्रयोजन निम्न हैंदिग्बन्धन क्यों?
जिस शिष्य को पाँच महाव्रतों में उपस्थापित किया जाता है उस शिष्य का नया नामकरण और दिग्बन्धन करते हैं। यह विधि उपस्थापना के अन्तिम चरणों में सम्पन्न होती है। ____दिग्बन्धन का सामान्य अर्थ है- दिशाओं का बन्धन। व्यवहारसूत्र की टीका में दिग्बन्ध के दो अर्थ किये गये हैं - प्रथम अर्थ के अनुसार नवदीक्षित मुनि या साध्वी के आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी की नियुक्ति करना दिग्बन्ध कहलाता है।199 द्वितीय अर्थ के अनुसार प्रव्रज्याकाल या उपास्थापनाकाल में किसी आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी के अनुसार आदेश-निर्देश में रहने का जो निर्धारण किया जाता है, वह दिग्बन्ध कहलाता है।200
प्रस्तुत प्रसंग में दिग्बन्धन का दूसरा अर्थ ग्राह्य है। यह दिग्बन्धन मुनि जीवन को संयमित एवं अनुशासित बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। इस विधान के माध्यम से अमुक मुनि या अमुक साध्वी की दीक्षा यानी मर्यादा निश्चित कर दी जाती है कि यह अमुक आचार्य के आदेश-निर्देश में है। जीवन व्यवहार का समुचित ढंग से निर्वहन करने के लिए समुदाय आदि की व्यवस्था बनाये रखना अत्यन्त जरूरी है। दिग्बन्धन के द्वारा प्रत्येक श्रमण या श्रमणी की एक सामुदायिक व्यवस्था निर्मित की जाती है। साथ ही अमुक आचार्य या उपाध्याय के नेतृत्व में उनकी अनुमतिपूर्वक सब कुछ करने का निर्धारण किया जाता है। दिग्बन्धन पूर्वक दीक्षित होने वाला शिष्य भी इस सम्बन्ध में निश्चिन्त रहता है कि मुझे अमुक आचार्य या अमुक उपाध्याय के निर्देशानुसार आत्मसाधना रत रहना है, उनका मार्गदर्शन मेरे संयमी जीवन का आधार है। अत: मुझे सर्वविकल्पों से रहित हो जाना चाहिए।
दिशाबन्ध एक तरह से लक्ष्मण रेखा का कार्य करता है। इससे स्वच्छन्द वृत्ति समाप्त हो आत्मस्वतन्त्रता का मार्ग प्राप्त होता है। दिग्बन्धन का एक प्रयोजन यह माना गया है कि जिस प्रकार किसी मकान को बेचते या खरीदते समय उसके सम्बन्ध में दस्तावेज लिखा जाता है। उस दस्तावेज में मकान के