Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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220... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
पं. आशाधर जी ने सागारधर्मामृत में रात्रिभोजन त्याग का महत्त्व दर्शाते हुए लिखा है 147_
विशुद्धये ।
अहिंसाव्रत रक्षार्थ, मूलव्रत नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत ।। अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए एवं मूलगुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन-वचन-काय से जीवन पर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए।
आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में रात्रिभोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रिभोजन करने से ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। रात्रिभोजन को पकाने अथवा प्रकाश के लिये जो अग्नि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है, उसमें भी अनेक जन्तु आकर मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते हैं अतः रात्रिभोजन हिंसा से मुक्त नहीं है। 148 आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में रात्रिभोजन - विरमण को पंच महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक माना है। 149 इसी प्रकार भगवती आराधना में भी श्रमणों के लिए रात्रिभोजन-विरमण व्रत का पालन आवश्यक माना गया है।15
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दिगम्बर परम्परा के आचार्य देवसेन 151, चामुण्डराय, ,152 वीरनन्दी 153 सभी ने रात्रिभोजन त्याग को महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उसे छठा अणुव्रत माना है। कितने ही आचार्यों ने रात्रिभोजनविरमण को अणुव्रतं न मानकर उसे अहिंसा व्रत की भावना के अन्तर्गत माना है। तत्त्वार्थसूत्र 154 के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक 155, विद्यानन्द 156 और श्रुतसागर 157 सभी के यही मत हैं। कदाचित तत्त्वार्थसूत्र 158 के सभी व्याख्याकार रात्रिभोजन - विरमण व्रत को छठा व्रत या अणुव्रत न मानें किन्तु सभी ने रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया है और इस बात पर बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है।
जैनेतर ग्रन्थों की दृष्टि से
जैन परम्परा में तो रात्रिभोजन निषेध का स्पष्ट उल्लेख है ही, किन्तु वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी रात्रिभोजन को वर्जित माना गया है। 'मार्कण्डेयपुराण' में मार्कण्डेय ऋषि ने रात्रिभोजन को मांसाहार के समान कहा है