Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 271
________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 209 भाव नहीं रखना चाहिए, वही वास्तविक अपरिग्रह महाव्रत है । वस्तुतः जैन श्रमण के लिए जिस उद्देश्य से आवश्यक सामग्री रखने का विधान है उसमें संयम की सुरक्षा प्रमुख है, अतः उसके उपकरण धर्मोपकरण कहे जाते हैं। इस सम्बन्ध में मुनि को यह खास तौर पर ध्यान रखना चाहिए कि उसे वे ही वस्तुएँ अपने पास रखनी चाहिए जिनके द्वारा वह संयम - यात्रा का निर्वाह आसानी से कर सके। यदि ममत्व भाव की वृद्धि होती हो तो उन उपकरणों का त्याग कर देना चाहिए। अपरिग्रह महाव्रत के अपवाद डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि दिगम्बर मुनि के लिए पूर्वोक्त तीन प्रकार के उपकरण और श्वेताम्बर मुनि के लिए पूर्वनिर्दिष्ट चौदह प्रकार के उपकरण रखना यह उत्सर्ग विधान है। इसके अतिरिक्त परिस्थिति विशेष में निर्धारित संख्या से अधिक उपकरण रखना अपवाद मार्ग है । व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि किसी अन्य मुनि की सेवा करनी हो तो वह अतिरिक्त पात्र रख सकता है अथवा विष निवारण करना हो तो स्वर्ण घिसकर उसका पानी रोगी को देने के लिए वह स्वर्ण भी ग्रहण कर सकता है । 117 इसी प्रकार निशीथचूर्णि के अनुसार अपवाद की स्थिति में वह छत्र, चर्म - छेदन आदि अतिरिक्त वस्तुएँ भी रख सकता है118 तथा वृद्धावस्था एवं बीमारी का कारण हो तो एक स्थान पर अधिक समय तक ठहर भी सकता है। आजकल जैन श्रमणों के द्वारा रखे जाने वाली पुस्तक, लेखनी, कागज, डायरी आदि वस्तुएँ भी अपरिग्रह व्रत का अपवाद रूप हैं। प्राचीन ग्रन्थों में पुस्तक रखना प्रायश्चित्त योग्य अपराध माना गया है, क्योंकि उस समय पुस्तक ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर लिखी जाती थी। पत्ते सुखाना आदि हिंसा का कारण माना जाता है। अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएँ अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ नौका के सदृश हैं। इस नौका के सहारे साधक परिग्रहरूपी विराट् सागर को सुगमता से पार कर सकता है। जैन चिन्तन में बाह्य इन्द्रियों को नष्ट करने का कथन कहीं पर भी नहीं किया गया है, क्योंकि बाह्य इन्द्रियों के नष्ट हो जाने से स्वयं को पाप मुक्त मानना - यह सर्वथा मिथ्या धारणा है। अतः परिग्रह से मुक्त होने के लिए जो विषय विकार की ओर इन्द्रियों का प्रवाह है उसको नियन्त्रित करना, उसका संवर करना यही अपरिग्रही वृत्ति है । अपरिग्रह की पंच भावनाएँ इस प्रकार हैं- 119

Loading...

Page Navigation
1 ... 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344