Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 213
ये भावनाएँ नेमिचन्द्रकृत प्रवचनसारोद्धार एवं हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र (1/26-33) में भी उल्लिखित हैं।
जहाँ तक महाव्रतों के अपवाद का प्रश्न है वह विवेचन जैन आगमसाहित्य और जैन टीका - साहित्य दोनों में प्राप्त होता है। जहाँ तक महाव्रतों के अतिचारों का सवाल है वह वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि पंचवस्तुक में प्राप्त होता है।
6. रात्रिभोजन - विरमणव्रत का स्वरूप
श्वेताम्बर आम्नाय में रात्रिभोजन परित्याग को छठा व्रत कहा गया है और दिगम्बर-परम्परा में श्रमण के मूलगुणों में इसकी गणना की गयी है।
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रात्रिभोजन विरमणव्रत स्वीकार करने वाला साधक प्रतिज्ञा करता है - 124 'हे भगवन्! मैं समस्त प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। द्रव्य सेअशन, पान, खादिम और स्वादिम, क्षेत्र से मनुष्य क्षेत्र में अर्थात जिस समय जहाँ रात्रि हो, काल से – रात्रि में, भाव से - तीखा, कडुआ, कषैला, खट्टा, मीठा या नमकीन । मैं किसी भी वस्तु को रात्रि में न स्वयं खाऊंगा, न दूसरों को खिलाऊंगा और न खाने वालों की अनुमोदना करूंगा। मेरी यह प्रतिज्ञा तीन करण - तीन योग पूर्वक यावज्जीवन के लिए है । '
यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रभु आदिनाथ और प्रभु महावीर (प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्कर) ने पंचयाम धर्म की स्थापना की तथा मध्य के बाईस तीर्थङ्करों ने चातुर्याम धर्म प्रस्थापित किया । 125 इसके आधार पर आचारांगसूत्र 126 और प्रश्नव्याकरणसूत्र127 में पाँच महाव्रत और तत्सम्बन्धी भावनाओं का ही वर्णन प्रतिपादित है। तब रात्रिभोजन विरमण व्रत की परिकल्पना कब अस्तित्व में आई ? कुछ लोगों की मान्यता है कि दशवैकालिकसूत्र की रचना के पूर्व तक रात्रिभोजन त्याग को व्रत में स्थान नहीं दिया गया था, किन्तु उनकी यह मान्यता भ्रान्त है। सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भगवान् महावीर ने लोगों को रात्रिभोजन से विरत किया। इससे सिद्ध होता है कि यह छठा व्रत भगवान् महावीर के समय से ही त्याग रूप से प्रवर्तित था हाँ! छठे व्रत रूप की अवधारणा सम्भवतया बाद में अस्तित्व में आई ।
रात्रिभोजन विरमण को छठें व्रत के रूप में मान्यता देने का मुख्य प्रयोजन दर्शाते हुए जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है 128 कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के