Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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208... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
श्रमण संस्कृति में परिग्रह को व्यक्तिगत जीवन के लिए हानिप्रद माना है और सामाजिक जीवन के लिए भी महाघातक बतलाया है। परिग्रह को अनर्थों की जड़ कहा गया है। जैसे एक व्यक्ति अधिकाधिक पदार्थों का संग्रह करता है तो दूसरे अनेक व्यक्ति उन आवश्यक पदार्थों से वंचित रह जाते हैं और उन पदार्थों के अभाव में उन लोगों का जीवन विषमताओं से भर उठता है इस प्रकार परिग्रह वृत्ति समाज के लिए महान घातक सिद्ध होती है। परिग्रह को पापों की जननी भी कहा गया है। वह अनेक पापों का सर्जन करती हैं जैसे परिग्रह वृत्ति से चिन्ता का जन्म होता है। उससे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दुर्गुण पैदा होते हैं। इससे अपरिग्रह व्रत की उपादेयता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
अपरिग्रह वृत्ति के द्वारा व्यक्ति अनेक प्रकार के संघर्षों से बच जाता है, क्योंकि अधिकांश संघर्ष या विवाद अर्थ के कारण ही हुए हैं। अपरिग्रह व्रत धारण करने से भागमभाग की जिन्दगी को विराम मिलता है। अपरिग्रही वैयक्तिक जीवन की साधना के लिए यथायोग्य समय अर्जित कर लेता है । सामाजिक क्षेत्र में एक आदर्श पुरुष की भूमिका का निर्वहन करता है । व्यापारिक क्षेत्र में आम व्यक्ति का विश्वसनीय बन जाता है। धार्मिक क्षेत्र में सदाचारी व्यक्तित्व की छवि अंकित करता है। मानसिक दृष्टि से सदा के लिए निश्चिन्त हो जाता है । इस प्रकार अपरिग्रह महाव्रत के माध्यम से व्यक्ति का इहलौकिक तथा पारलौकिक जीवन ही नहीं, अपितु जन्म-जन्मान्तर सफल हो जाते हैं।
इस सम्बन्ध में यह विवेक रखना जरूरी है कि कदाच बाह्य परिग्रह लेश मात्र भी नहीं हो और अन्तरंग में परिग्रह की लालसाएँ हिलोरे ले रही हों, तो वह भी परिग्रह माना जायेगा। जैन विचारणा में केवल बाह्य परिग्रह के आधार पर किसी को परिग्रही या अपरिग्रही नहीं कहा गया है। यह भावना प्रधान दर्शन है। यदि ऐसा न हो तो पशु-पक्षियों को अपरिग्रही की कोटि में गिना जाना चाहिए, क्योंकि उनके पास बाह्य परिग्रह कुछ भी दिखाई नहीं देता है, किन्तु हकीकत कुछ अलग है। उनके पास संग्रह करने की योग्यता का अभाव है । उनमें बुद्धि का विकास नहीं है, किन्तु परिग्रह के प्रति ममता उनमें भी है। उन्हें भी अपनी सन्तान के प्रति, खाद्य पदार्थों के प्रति उतनी ही आसक्ति है जितनी मानव के मन में है। इससे बोध होता है कि त्याग स्वेच्छा से होता है । इच्छा पूर्वक किया गया त्याग ही सच्चा त्याग कहलाता है। अतः परिग्रह के सन्दर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि परिग्रह अल्प हो या अधिक, उसके प्रति मूर्च्छा