Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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164...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता क्षयोपशमभाव इस चारित्र की प्राप्ति का अनन्तर कारण है।16 उपस्थापना चारित्र में स्थिर रहने के उपाय
दशवैकालिकसूत्र के अनुसार जो साधक केवली प्ररूपित मार्ग में प्रव्रजित है, किन्तु मोहवश उसका चित्त संयम से विरक्त हो जाये और गृहस्थाश्रम में आना चाहे तो उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भली-भाँति चिन्तन करना चाहिए। अस्थिर आत्मा के लिए इन स्थानों का वही महत्त्व है, जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का होता है। वे अठारह स्थान निम्नोक्त हैं।7
1. ओह ! इस दुःखम नामक पंचम आरे में लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं। 2. गृहस्थों के कामभोग स्वल्प, सार-रहित और अल्पकालिक हैं। 3. मनुष्य प्रायः माया बहुल होते हैं। 4. यह मेरा परीषहजनित दुःख चिरकालस्थायी नहीं होगा। 5. गृहवासी को नीच जनों का सत्कार करना होता है। 6. संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है - वमन को वापस पीना। 7. संयम का त्याग कर गृहवास में जाने का अर्थ है - नारकीय जीवन का अंगीकार। 8. ओह ! गृहवास में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है। 9. गृहवास आतंकवध के लिए होता है। 10. गृहवास संकल्प-वध के लिए होता है। 11. गृहवास क्लेशसहित है और मनिपर्याय क्लेशरहित है। 12. गृहवास बन्धन है और मुनिपर्याय मोक्ष है। 13. गृहवास सावध है और मुनिपर्याय निरवद्य है। 14. गृहस्थों को कामभोग सर्वसुलभ है, मुनि जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। 15. पुण्य और पाप अपना-अपना होता है। 16. ओह ! मनुष्य का जीवन अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जल बिन्दु के समान चञ्चल है। 17. ओह ! सच्चरित्र के द्वारा पूर्वोपार्जित पाप कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षयकर लेने पर ही मोक्ष होता है अन्यथा उनसे छुटकारा नहीं होता है। उपस्थापना चारित्र का महत्त्व
जैन साहित्यकारों ने चारित्र का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि कोई व्यक्ति बहुत पढ़ा हुआ है, किन्तु आचारहीन है तो वह ज्ञान भी उसके लिए लाभदायी नहीं है जैसे अन्धे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने का क्या लाभ है ? जबकि आचारवान का अल्पज्ञान भी उसे प्रकाश से भर देता है, चक्षुष्मान को एक दीपक का प्रकाश भी काफी होता है।