Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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172... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
व्यापारी, दो सभाजन, दो महाकालीन दीक्षित बने हों, के साथ में उपस्थापना को प्राप्त हुए हों तो उनकी युगपद् उपस्थापना करनी चाहिए, उनमें छोटे-बड़े का भेद नहीं करना चाहिए ।
इसी तरह प्राप्त अप्राप्तं शिष्य की विधि भी समझनी चाहिए।
उपस्थापित शिष्य का अध्ययन क्रम
जिस शिष्य को उपस्थापित करना हो अथवा जो नवदीक्षित उपस्थापना चारित्र को अंगीकार करने हेतु उद्यमशील हो उसे षड्जीवनिकाय - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय का स्वरूप समझाना चाहिए, पृथ्वीकायादि में सजीवत्व कैसे है ? इसकी सिद्धि करनी चाहिए तथा जो महाव्रत आदि स्वीकार करने योग्य हैं उनका उपदेश देना चाहिए। यह आगम विहित विधि है।
प्रसंगवश षड्जीवनिकाय का सामान्य वर्णन इस प्रकार है
पृथ्वीकाय में सजीवत्व सिद्धि - 'पृथ्वीकाय सजीव है' जैसे कि जीवित मनुष्य के मज्जा, मांस आदि का थोड़ा टुकड़ा काट लेने पर भी वे स्थान पुनः भर जाते हैं उसी प्रकार पृथ्वी को खोदने पर भी खड्डे भर जाते हैं इस प्रकार मनुष्य की तरह पृथ्वी भी सजीव है। हम प्रत्यक्ष में पर्वत और मिट्टी के टीले बढ़ते हुए देखते हैं। इनका आहार भी होता है, अनुकूल आहार के योग से प्रफुल्लित होते हैं, बढ़ते हैं और आहार के अभाव में अथवा प्रतिकूल हवा आदि के संयोग से घटते हैं।27 इस प्रकार इनसे जीवत्व सिद्ध है। पृथ्वीकाय में पत्थर, मिट्टी, धातु, रत्न, नमक, विशेष प्रकार के पत्थर की जातियाँ आदि का भी समावेश होता है।
अप्काय का सजीवत्व पृथ्वीकाय की तरह अप्काय (जल) भी सजीव है। जैसे भूमि खोदने से मेंढक की उत्पत्ति स्वाभाविक होती है वैसे ही भूमि को खोदने पर जल की भी सम्भावना स्वाभाविक होती है अथवा जिस प्रकार बरसात के पानी में मछलियों की उत्पत्ति स्वाभाविक होती है उसी प्रकार आकाश में बरसात का जल भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। इस तरह भूमिगत सभी प्रकार के जल सजीव हैं और उसमें जीवत्वपना प्रत्यक्षत: सिद्ध है। 28
काय का सजीवत्व अग्निकाय में जीवत्व की सिद्धि इस तरह है
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