Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 197 ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा
ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी पवित्र आचरण ब्रह्मचर्य पर निर्भर हैं। ब्रह्मचर्य वह आध्यात्मिक स्वास्थ्य है, जिसके द्वारा मानव समाज पूर्ण सुख और शान्ति का साम्राज्य उपलब्ध कर सकता है।
जैन आगमों में अहिंसा के बाद ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस व्रत का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है- जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता है उसे देव, दानव और यक्ष आदि सभी नमस्कार करते है।83 प्रश्नव्याकरणसूत्र में वर्णित है कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है। यम और नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त है। यह साधुजनों द्वारा आचरित मोक्ष का मार्ग है। वह पुनर्भव को रोकने वाला प्रशस्त, मंगलमय, शुभ, सुख व अक्षय का प्रदाता है। दुर्गति के मार्ग को अवरुद्ध करने वाला और सुगति का पथ प्रदर्शक है।84 __ आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - जो अल्पशक्ति पुरुष हैं, शीलरहित हैं, दीन हैं और इन्द्रियों से जीते गये हैं, वे इस ब्रह्मचर्य को धारण करने में स्वप्न में भी समर्थ नहीं हो सकते अर्थात बड़ी शक्ति के धारक पुरुष ही ऐसे कठिन व्रत के आचरण करने के लिए समर्थ होते हैं।85
जिस प्रकार किंपाकफल (इन्द्रायण का फल) देखने, सूंघने और खाने में रमणीय (सुस्वादु) होता है किन्तु समय पूर्ण होने पर हलाहल (विष) का काम करता है, उसी प्रकार यह मैथुन भी कुछ कालपर्यन्त रमणीक अथवा सुखदायक मालूम होता है, परन्तु विपाक समय में बहुत ही भय को देने वाला है।86 सर्प से काटे हुए प्राणी के तो सात ही वेग होते हैं, परन्तु कामरूपी सर्प से डसे हुए जीवों के दस वेग होते हैं, जो बड़े भयानक हैं।87 ____ काम से उद्दीपन होने पर प्रथम चिन्ता होती है कि स्त्री का सम्पर्क कैसे हो, दूसरे वेग में उसके देखने की इच्छा होती है,तीसरे वेग में दीर्घ निःश्वास लेता है और कहता है कि हाय देखना नहीं हुआ, चौथे वेग में बुखार चढ़ आता है, पाँचवें वेग में शरीर दग्ध होने लगता है, छठे वेग में किया हुआ भोजन रुचता नहीं है, सातवें वेग में बेहोश हो जाता है, आठवें वेग में उन्मत्त हो जाता है तथा यद्वा-तद्वा बकने लग जाता है, नवें वेग में प्राणों का सन्देह हो जाता है कि अब मैं जीवित नहीं रहूँगा और दसवाँ वेग ऐसा आता है कि जिससे मरण हो जाता