Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 187
2. क्रोध विवेक - क्रोध का त्याग करके बोलना। अन्यथा क्रोधावस्था में बुद्धि कुण्ठित हो जाने से असत्य वचन की सम्भावनाएँ विशेष रहती हैं।
3. लोभ विवेक - लोभ के वशीभूत होकर नहीं बोलना क्योंकि लोभी आत्मा धनलिप्सा के कारण निश्चित ही असत्यभाषी होता है।
4. भय विवेक - निर्भीक वचन बोलना, चूंकि किसी भी प्रकार के भय की स्थिति में असत्य भाषण की सम्भावना रहती है।
5. हास्य विवेक - हास्य का त्याग करके बोलना क्योंकि हंसी-मजाक में असत्य भाषण की प्रवृत्ति लगभग देखी जाती है।
सत्य-महाव्रती को क्रोधादियुक्त वचन प्रवृत्ति न करने का पुनः पुनः अभ्यास करना चाहिए। सत्य महाव्रत के अतिचार
इस सत्य महाव्रत में सूक्ष्म और बादर दो प्रकार के अतिचार लगते हैं। इसमें प्रचला आदि के द्वारा सूक्ष्म अतिचार लगते हैं जैसे एक साधु ने दूसरे साधु से कहा- 'हे मनिप्रवर! दिन में बैठे-बैठे क्यों नींद ले रहे हो ? तब वह साधु निद्रा लेते हुए भी यह बोले कि कौन नींद ले रहा है ? यह सूक्ष्म अतिचार है तथा क्रोधादि के वशीभूत होकर असत्य बोलना बादर अतिचार है।64 3. अचौर्य महाव्रत का स्वरूप
किसी मालिक के द्वारा, नहीं दी गयी वस्तु को स्वीकार करने का सर्वथा त्याग कर देना अचौर्य महाव्रत है। इस व्रत का प्रतिज्ञासूत्र इस प्रकार है
'हे भगवन् ! मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ। गाँव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी अदत्त वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, दूसरों से अदत्त वस्तु ग्रहण नहीं कराऊँगा और अदत्त वस्तु ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। यह प्रतिज्ञा तीन करण- तीन योग पूर्वक यावज्जीवन के लिए स्वीकार करता हूँ।' शेष पूर्ववत। ___ इसका दूसरा नाम सर्वथा अदत्तादानविरमणव्रत है। अदत्त-बिना दी हुई, आदान- ग्रहण करना, विरमण-निवृत्त होना अर्थात बिना दी हुई वस्तु का सर्वथा प्रकार से त्याग कर देना, उससे विरत हो जाना अदत्तादानविरमण व्रत है। इसे अचौर्य व्रत एवं अस्तेय व्रत भी कहते हैं।