Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 193 स्थान पर ठहर सकता है; किन्तु उसके बाद आज्ञा प्राप्त करने का अवश्य प्रयास किया जाना चाहिए। यह अपवाद परिस्थिति विशेष के सम्बन्ध में जानना चाहिए। यदि उसे कोई आज्ञा देने वाला न हो तो तिनका जैसी क्षुद्र वस्तु भी पृथ्वी के अधिपति शक्रेन्द्र की आज्ञा लेकर ही ग्रहण करे; किन्तु बिना आज्ञा के न कोई वस्तु ग्रहण करे और न उसका उपयोग ही करे। इस व्रत का पालन पूर्ण निष्ठा एवं दृढ़ता के साथ करे। चूंकि व्रत पालन करने में किञ्चित शैथिल्य भी भारी अनर्थ का कारण बन जाता है, जैसे तम्बू की प्रत्येक रस्सी खूटे से कसकर बंधी हुई होना अनिवार्य है, यदि एक भी डोरी ढीली रह जाती है तो तम्बू में पानी आने की अथवा पवन के वेग से उड़ जाने की सम्भावना रहती है। अस्तु डॉ. सागरमल जैन के मन्तव्यानुसार अचौर्यव्रत के अपवादों का प्रयोग कठिन परिस्थितियों में या संयम रक्षणार्थ किया जाना चाहिए। अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ
अचौर्य महाव्रत की रक्षा करने के लिए समवायांगसूत्र में निम्न पाँच भावनाओं का विधान है/5
1. अवग्रह अनुज्ञापनता - अवग्रह अर्थात रहने के स्थान की पुनः पुनः याचना करना। जैन साधु के लिए यह सामाचारिक प्रावधान है कि वह किसी भी वसति (स्थान) या वस्तु आदि की याचना देवेन्द्र, राजा, गृहपति, शय्यातर या साधर्मिक से स्वयं करे। स्थान आदि की याचना करना अवग्रह कहलाता है। यदि साधु किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से याचना करता है तो कभी वसति के मालिक के साथ उस व्यक्ति का विवाद हो जाये तो मालिक रुष्ट होकर साधु को बाहर निकाल सकता है। अत: साधु प्रत्येक वस्तु के लिए मालिक से स्वयं ही याचना करे।
2. अवग्रह सीमाज्ञापनता - अवग्रह की सीमा का बोध करना अर्थात विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही स्थान या वस्तुओं की याचना करना अवग्रह सीमा-ज्ञापनता भावना है।
3. स्वयमेव अवग्रह अनुग्रहणता - अनुज्ञात अवग्रह की सीमा में रहना। अर्थात अपने लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करना या सीमित याचित स्थान में रहना।