Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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188... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
यह महाव्रत चौर्यकर्म न करने से सम्बन्धित है, अतः हमें चोरी के स्वरूप को समझना होगा, तभी इस व्रत का निर्दोष पालन किया जा सकता है। चोरी का अर्थ एवं उसके प्रकार
मालिक की अनुमति के बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण करना, बिना दी हुई वस्तु को स्व-इच्छा से उठा लेना, उसका उपभोग एवं उपयोग करना अदत्तादान है। इसे चोरी भी कहते हैं।
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सामान्यतया चोरी के अनेक प्रकार हैं। उनमें कुछ मुख्यतया निम्न हैंछन्न- इस चोरी से तात्पर्य है कि स्वयं के या अन्य किसी के घर पर बहुत-सी वस्तुएँ हों, उनमें से कोई वस्तु मालिक की आज्ञा के बिना गुप्त रूप से उठाकर अपने अधिकार में कर लेना या उसका उपयोग करना छिन्न चोरी है। किसी वस्तु को उसके अधिपति या उसके संरक्षक सदस्य की आँख बचाकर ग्रहण कर लेना नजर चौर्यकर्म है।
नजर
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ठगी किसी वस्तु को मालिक के सामने ही इस तरह से लेना कि उसे मालूम ही न पड़े अथवा अच्छी वस्तु बताकर निम्न कोटि की वस्तु देना अथवा वस्तु में मिलावट करना, नाप-तोल में गड़बड़ करना, वस्तु का जितना दाम है उससे अधिक मूल्य लेना आदि ठग चोरी हैं।
उद्घाटक - गाँठ खोलकर, जेब काटकर, सेंध लगाकर, ताला तोड़कर, तिजोरी तोड़कर किसी वस्तु चुरा लेना उद्घाटक चोरी है।
बलात किसी के यहाँ डाका डालकर, जबर्दस्ती छीना-झपटी कर या मार-पीट कर, शस्त्र दिखाकर वस्तु को ग्रहण करना बलात चोरी है। वस्तु के स्वामी या संरक्षक की हत्या कर उसकी सभी चीजें ग्रहण कर लेना घातक चोरी है ।
घातक
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उक्त चोरियाँ वस्तु के अधिपति की असावधानी से होती हैं और प्रत्यक्ष में दिखायी भी देती हैं। 66 ये सभी अर्थ चोरी के प्रकार हैं।
भाव चौर्य के प्रकार दशवैकालिकसूत्र में पाँच प्रकार की भाव चोरी बतायी गयी है, वह निम्न हैं 67 -
1. तप चोर
तपसाधना न करते हुए भी स्वयं को तपस्वी बताना।
2. वाणी चोर 3. रूप चोर
धर्मकथी या वादी न होते हुए भी स्वयं को वैसा बताना। उच्च जातीय न होते हुए भी स्वयं को वैसा बताना।
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