Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
168... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
आवश्यक होता है। तीन शैक्षभूमियाँ इस प्रकार हैं 1. जघन्य सात अहोरात्र की। 2. मध्यम - चार महीने की। 3. उत्कृष्ट - छह
महीने की।
1. जो मुनि पहले अन्य गच्छ में दीक्षित होकर पुनः प्रव्रजित हुआ है तथा तीक्ष्ण बुद्धि एवं प्रतिभावान है और जिसकी पूर्व भूमिका तैयार है वह पूर्व विस्मृत सामाचारी का अभ्यास एक सप्ताह में कर सकता है, अत: उसे सातवें दिन उपस्थापित कर देना चाहिए। यह जघन्य भूमि है।
-
2. जो व्यक्ति प्रथम बार दीक्षित हुआ है, बुद्धि और श्रद्धा दोनों से अत्यन्त मन्द है वह साधु सामाचारी और इन्द्रिय-जय का अभ्यास छह मास के भीतर कर सकता है या उसे छह माह तक पूर्वाभ्यास करवाया जाना चाहिए या उस दीक्षित को छह मास के भीतर सामाचारी आदि का अभ्यास कर लेना चाहिए, उसके बाद ही उपस्थापित करना चाहिए। यह उत्कृष्ट भूमि मन्द बुद्धि शिष्य की अपेक्षा कही गयी है।
3. जो पूर्व भूमिका से अधिक बुद्धिमान् हो, श्रद्धा वाला हो और सामाचारी और इन्द्रियजय का अभ्यास चार मास की अवधि में कर सकता हो अथवा कोई भावनाशील, श्रद्धासम्पन्न मेधावी व्यक्ति प्रव्रजित हो, तो उसे भी सामाचारी एवं इन्द्रियजय का अभ्यास चार मास तक करवाना चाहिए, तदनन्तर उपस्थापना करनी चाहिए। यह शैक्ष की मध्यम भूमि है। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि नवदीक्षित की जघन्य से सात दिन के पश्चात, मध्यम से चार माह के पश्चात और उत्कृष्ट से छह माह के पश्चात उपस्थापना की जा सकती है। यह कालमर्यादा व्यक्ति की पात्रता के आधार पर रखी गई है।
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि नवदीक्षित सात दिन के अन्तराल में साधु सामाचारी आदि का परिज्ञान कैसे कर सकता है ? इसका युक्ति संगत समाधान पूर्व में कर चुके हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार यदि कोई मुनि दीक्षा से भ्रष्ट होकर पुन: दीक्षा ले तो वह विस्मृत सामाचारी आदि का सात दिन में अभ्यास कर सकता है, अत: उसे सातवें दिन महाव्रतों में उपस्थापित किया जा सकता है। इस अपेक्षा से भी शैक्षभूमि का जघन्यकाल सम्भव है।
निष्पत्ति यदि उपस्थापना व्रतारोपण की कालमर्यादा का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो सर्वप्रथम इसकी चर्चा स्थानांगसूत्र, 22
-