Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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150... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
कटिबद्ध है और विषम पीड़ाओं को सहन करने में तत्पर बन चुका है। साथ ही यह मुनि अनुदित कर्मों की उदीरणा कर रहा है तथा कायिक कष्टानुभूतियों से स्वयं को पृथक् करने का पुरुषार्थ कर रहा है।
जब हम इसके बाह्य पक्ष को देखते हैं तो यह साधना देहदण्डन के समान लगती है; किन्तु आभ्यन्तर पक्ष से विचार करने पर इसकी मूल्यवत्ता अनेक दृष्टियों से मालूम होती है । यह जैन धर्म की अपनी स्वतन्त्र साधना है । इस विधि का अस्तित्व केवल जैन परम्परा में ही है। इस अपेक्षा से भी जैन धर्म की परिगणना कठोर साधना प्रधान धर्मों में की गयी है।
यहाँ मुख्य रूप से लोच - विधि के ऐतिहासिक पक्ष पर विचार करना है। यदि इस सन्दर्भ में आगम साहित्य का आलोडन करते हैं तो यह विधि प्राचीनतम सिद्ध होती है। यद्यपि आगमों में तद्विषयक विस्तृत चर्चा नहीं है । आचारांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, अनुत्तरौपपातिकदशा, अन्तकृतदशा आदि में 'पंचमुष्टि लोच क्रिया' अथवा 'मुण्डित होकर अणगार बने' इतना मात्र सूचन है, परन्तु केशलोच करने से पूर्व या पश्चात किस प्रकार की विधि सम्पन्न की जाये, इस सम्बन्ध में किंचित भी उल्लेख नहीं है ।
आचारांगसूत्र में वर्णन आता है कि 'श्रमण भगवान् महावीर दाहिने हाथ से दायीं ओर का एवं बायें हाथ से बायीं ओर का पंचमुष्टि लोच करते हैं। 18
भगवतीसूत्र में उल्लेख है कि 'मुद्गल परिव्राजक ने स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की।' इस प्रकार के उल्लेख मेघकुमार, अर्जुनमाली, धन्यअणगार आदि के सन्दर्भ में भी मिलते हैं। 19
जैसे कि ज्ञाताधर्मकथासूत्र 20 में मेघकुमार के द्वारा, अन्तकृद्दशासूत्र 21 में अर्जुनमाली के द्वारा, अनुत्तरौपपातिकदशा सूत्र 22 में काकन्दी निवासी धन्ना अणगार के द्वारा प्रव्रजित होते समय पंचमुष्टि लोच करने का निर्देश उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार के विधि-विधान का नामोल्लेख मात्र भी नहीं है। इसी तरह आगमिक टीका साहित्य एवं विक्रम की 10वीं शती तक उपलब्ध ग्रन्थों में भी लगभग इस विधि सम्बन्धी चर्चा नहीं है ।
तदनन्तर केशलोच विधि का प्रारम्भिक एवं सुविकसित स्वरूप सर्वप्रथम तिलकाचार्य सामाचारी में देखा जाता है। तत्पश्चात सुबोधासामाचारी,