Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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160...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
एकविध संयम - अविरति से निवृत्ति होना। दो प्रकार का संयम - आभ्यन्तर संयम और बाह्य संयम। तीन प्रकार का संयम - मनःसंयम, वचनसंयम, कायसंयम। चार प्रकार का संयम - चातुर्याम संयम पांच प्रकार का संयम - पाँच महाव्रतों का पालन करना। छह प्रकार का संयम - पाँच महाव्रतों तथा रात्रिभोजन विरमण
व्रत का पालन करना। इस प्रकार आचार संयम अठारह हजार शीलांग परिमाण वाला कहा गया है। इस अध्याय में सामान्य रूप से संयम के सभी प्रकार समाविष्ट हैं, किन्तु प्रमुख रूप से छह प्रकार का संयम अपेक्षित है।
उपस्थापना चारित्रधर्म का अनन्तर कारण है। वह चारित्र पाँच प्रकार का कहा गया है- 1. सामायिक 2. छेदोपस्थापनीय 3. परिहार विशुद्धि 4. सूक्ष्मसंपराय और 5. यथाख्याता __1. सामायिक चारित्र - सर्वथा सावद्ययोग से विरत हो जाना सामायिक है। अपने और पराये का भेद किये बिना प्रवृत्ति करना सामायिक है। राग-द्वेष से रहित चित्त का परिणाम सम् है और उसमें रहना सामायिक कहलाता है।
सामायिक चारित्र के दो भेद हैं- 1. इत्वरिक - स्वल्पकालिक और 2. यावत्कथिक - यावत्जीवन। भरत और ऐवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय में इत्वरिक एवं यावत्कथिक दोनों प्रकार के चारित्र होते हैं तथा महाविदेह क्षेत्र में और भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के शासन में केवल यावत्कथिक सामायिक चारित्र ही होता है, क्योंकि उनके लिए उपस्थापना चारित्र की आवश्यकता नहीं रहती है। इसे ही प्रव्रज्या या दीक्षा कहते हैं।
2. छेदोपस्थापनीय चारित्र - जिसमें सामायिक चारित्र की पर्याय का छेद और महाव्रतों का पुन: उपस्थापन किया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। छेदोपस्थापनीय चारित्र भी दो प्रकार का है - 1. निरतिचार - यह दो अवस्थाओं में होता है।
1. शिष्य को महाव्रतों में उपस्थापित किये जाने पर और 2. एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर।