Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 161
स्पष्टार्थ है कि इत्वर सामायिक वाले नवदीक्षित साधु को छेदोपस्थापन देना अथवा एक तीर्थङ्कर के तीर्थ को छोड़कर दूसरे तीर्थङ्कर के तीर्थ में जाने वाले शिष्य को छेदोपस्थापन चारित्र देना, निरतिचार चारित्र है।
2. मूलगुणों का घात करने वाले शिष्य में फिर से महाव्रतों का आरोपण करना, सातिचार छेदोपस्थापना चारित्र है।
3. परिहारविशुद्धि चारित्र - परिहारनामक तप विशेष के द्वारा शुद्धि प्राप्त करना परिहारविशुद्धि चारित्र है।10
परिहारविशुद्धि चारित्र का पालन करने वाले मुनि की तप साधना का कालमान अठारह महीना है। पारिहारिक, अनुपारिहारिक और कल्पस्थित इन तीनों स्थितियों में प्रत्येक में छह-छह महीने का तप होता है। इस चारित्र को धारण करने वाले मुनि के सम्बन्ध में इतना जरूर समझ लेना चाहिए कि परिहार तप की समाप्ति होने के बाद कुछेक मुनि पुनः परिहार तप को स्वीकार करते हैं, कुछेक जिनकल्प को स्वीकार करते हैं और कुछेक संघ में प्रवेश कर लेते हैं इसलिए यह चारित्र स्थितकल्प की अवस्था में होता है तथा वह प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय में ही होता है।11
___4. सूक्ष्मसंपराय चारित्र - जब लोभकषाय सूक्ष्म रूप से अवशेष रहता है उस समय साधक की जो स्थिति रहती है, वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है। यह चारित्र दशवें गुणस्थान में होता है।12
5. यथाख्यात चारित्र - जब क्रोध, मान, माया और लोभ उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्र-स्थिति यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र तेरहवें-चौदहवें गणस्थानवर्ती सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को होता है।13
इस प्रकार उपस्थापना के पांच, छह आदि अनेक प्रकार हैं। उनमें उपस्थापना स्वयं एक प्रकार का चारित्र है। संयम एवं चारित्र में भेद
आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों का सम्यक् स्वरूप समझने वाला एवं इनका वर्जन करने वाला मुनि आराधना के पूर्ण योग्य होता है।14 इसी हेतु से आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रव्रज्या के अर्थ का निर्वचन करने से पूर्व आरम्भ और परिग्रह की परिभाषाएँ प्रस्तुत की है।
चारित्र की आराधना दिन एवं रात्रि के सभी प्रहरों में किसी भी समय की