Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 87
अभिभावकों से अनुमति प्राप्त करके ही प्रव्रज्या ग्रहण की। चरम तीर्थाधिपति श्रमण महावीर स्वयं ज्येष्ठभ्राता नन्दीवर्धन की अनुज्ञा प्राप्त न होने तक गृहवास में रहे। मेघकुमार, राजर्षि उदयन, महाराजा श्रेणिक के पुत्र-पौत्र, मृगावती, धन्ना अणगार, अतिमुक्तक, गजसुकुमाल आदि सहस्राधिक व्यक्तियों ने अनुमति सम्प्राप्त कर संयमपथ पर आरोहण किया | 54
आजकल की युवापीढ़ी का अच्छा प्रश्न है । वे कहते हैं कि अन्तरंग वैराग्य की प्रबल भावना से ही साधक दीक्षा ग्रहण करता है, फिर परिजनों की अनुमति क्यों आवश्यक है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जा सकता है कि जिस साधना को उसने श्रेयस्कर समझा है, जिस आर्हती दीक्षा के प्रति उसके मन में दृढ़ आस्था पैदा हुई है उस साधना - मार्ग के प्रति अभिभावकों की भी श्रद्धा जागृत की जाये। दूसरा कारण माता-पिता के संस्कारों एवं सत्प्रयासों के बदौलत उसे सब कुछ प्राप्त हुआ है, वे जीवन के सर्वस्व होते हैं उनकी अनुमति एवं इच्छा के बिना किया गया कार्य किसी भी दुनियाँ में न उत्तम माना गया है और न ही लाभकारी। तीसरा हेतु यह है कि उनके आशीर्वाद के फलस्वरूप साधना के पथ पर प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ा जा सकता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कोई घर से भागा हुआ या गलत व्यक्ति दीक्षित न हो सके, क्योंकि ऐसे प्रव्रजितों के कारण श्रमण संघ में अशान्ति और विग्रह भरे वातावरण की सम्भावनाएँ बन सकती हैं। इससे संघ का अपयश भी हो सकता है।
जैन-साहित्य में एक भी उदाहरण ऐसा दिखायी नहीं देता, जिसने बिना अनुज्ञा दीक्षा ली हो। हाँ, जो स्वयं ही सर्वेसर्वा है या जिसका कोई अधिपति नहीं है, उसको किसी की आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती, पर सामान्य व्यक्तियों के लिए यह नियम रहा है कि वह अनुमति प्राप्त कर दीक्षा ले। यह बहुत सुन्दर परम्परा है। इस परम्परा का अनुकरण आज भी देखा जाता है। इस परम्परा के पीछे बहुत से प्रयोजन हैं।
पंचवस्तुक, धर्मसंग्रह आदि ग्रन्थों में यह विधि कुछ विस्तार के साथ उपलब्ध होती है। जैसे दीक्षार्थी माता-पितादि वरिष्ठ जनों से किस प्रकार अनुमति प्राप्त करे, अनुमति न मिलने पर किस तरह माता - पितादि को समझाने का प्रयास करे, उनकी आजीविका का प्रबन्ध करे, फिर भी अनुज्ञा न मिले तो ग्लान औषधादि दृष्टान्त के समान उनका संग छोड़कर गुरु के समीप आकर उन्हें