Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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मण्डली तप विधि की तात्त्विक विमर्शना... 129
इस तप का चौथा प्रयोजन शास्त्रों का गहन एवं गूढ़ार्थ अध्ययन करने से सम्बन्धित है। जब नूतन दीक्षित समूह के साथ बैठकर स्वाध्याय करे तभी शास्त्र वचन के मर्म एवं हार्द को समझ सकता है क्योंकि वाचना, पृच्छना, परावर्तना के माध्यम से किया गया अध्ययन धारणा पूर्वक गृहीत होता है, वह ज्ञान स्मृति कोष में दीर्घ अवधि तक टिका रहता है, अतः सम्यक् ज्ञानार्जन के उद्देश्य से भी मण्डली तप की अनिवार्यता सिद्ध होती है।
यह तप आवश्यक क्रियाओं के प्रति एवं आत्म साधना के प्रति हर पल सतर्क एवं सावधान बने रहने के ध्येय से भी करवाया जाता है। यह अनुभव सिद्ध है कि संस्कारी परिवार के साथ रहने वाला व्यक्ति बिना किसी पापोदय के न तो असत आचरण कर सकता है और न ही आपराधिक क्रूर कृत्य ही । वह सदैव अपने व्यक्तित्व को ऊँचा बनाये रखने में प्रयत्नशील रहता है। यही तथ्य श्रमण-श्रमणी समुदाय में भी घटित करना चाहिए। इस दुषमकाल में जो मुनिगण सामुदायिक सामाचारियों (नियमों) का अनुसरण करते हैं वे प्रतिपल संयम में जागरूक रहते हैं तथा उन्हें लोक निन्दा, धर्म, अपयश एवं शासन हीलना का भय सतत बना रहता है।
मण्डली तप का अन्तिम प्रयोजन यह माना जा सकता है कि जिस प्रकार एक कुंवारी कन्या को अग्नि की साक्षी एवं मन्त्रोच्चारण पूर्वक सात फेरा आदि कर लेने पर ससुराल भेजा जाता है उसी प्रकार सात मण्डली के योग करने के पश्चात नूतन साधु को मण्डली के साथ स्वाध्याय, आहार, आवश्यक आदि करने का प्रवेश पत्र प्राप्त होता हैं।
इस प्रकार मण्डली प्रवेश तप की आवश्यकता विविध दृष्टिकोणों से सार्थक मालूम होती हैं।
विविध सन्दर्भों में मण्डली तपोनुष्ठान की प्रासंगिकता
मण्डल अर्थात समूह। जैन मुनियों में जिनकल्पी साधु एकल साधना करते हैं। शेष सभी के लिए सामूहिक साधना का विधान है अतः हम यह भी कह सकते हैं कि जैन धर्म में मात्र लोक कल्याण की चर्चा या नैश्चयिक जीवन ही नहीं, व्यावहारिक जीवन एवं लोकोत्तर कल्याण का भी चिन्तन है । यदि मण्डली विधि का मनोवैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण करें तो अवगत होता है कि यह समूह में प्रवेश पाने की क्रिया है। समुदाय में रहने और सामूहिक क्रियाकलाप