Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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144... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
तो लोच के द्वारा वैयक्तिक समस्याएँ जैसे कि चित्त एवं काया की अस्थिरता, क्रोधादि कषाय पर अनियन्त्रण, इन्द्रिय असंयम आदि पर विजय प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि लोच क्रिया में चित्त स्थैर्य, क्षमाभाव आदि का होना अत्यन्त अनिवार्य है। इस साधना से पारिवारिक समस्याएँ जैसे कि आपसी मनमुटाव, असहिष्णुता, बड़ों के प्रति अविनय आदि को सुलझाया जा सकता है, क्योंकि लोच करने एवं करवाने वाले में आपसी सहयोग और सामञ्जस्य के भाव होना जरूरी है। आज साम्प्रदायिक तनाव, आपसी मनमुटाव आदि का मूल कारण असहिष्णुता भी है, लोच के द्वारा इस पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। केशलुंचन के प्रकार
श्रमणाचार का प्रतिपादक श्री कल्पसूत्र नामक आगम में लुंचन के तीन प्रकार उल्लिखित हैं
1. केशलुंचन (अपने हाथों से केश उखाड़ना)
2. क्षुरमुण्डन (उस्तरे द्वारा मुण्डन करवाना)
3. कर्त्तरीमुण्डन (कैंची द्वारा बाल काटना)।
इन तीन प्रकारों में केशलुंचन उत्सर्ग मार्ग है तथा क्षुर एवं कर्त्तरीमुण्डन अपवादमार्ग है। यथासम्भव उत्सर्ग मार्ग का ही सेवन करना चाहिए । केशलुंचन के अधिकारी कौन ?
पूर्वोक्त तीन प्रकारों में कौन- किस प्रकार के मुण्डन का अधिकारी है ? इस सम्बन्ध में आगमिक प्रमाण तो प्राप्त नहीं है, किन्तु परम्परागत रूप से कहा जाता है कि स्वस्थ, सक्षम, पुष्टकाय एवं परिपक्व आयु वाले मुनि को केशलोच करना चाहिए, अन्यथा वह प्रायश्चित्त का भागी होता है । बाल, तपस्वी, निर्बल, रूग्ण या अपरिपक्व मुनि केशलोच में असमर्थ हो तो उनकी मानसिक स्थिति का आंकलन करते हुए क्षुरमुण्डन करना चाहिए। यदि केशलोच करवाने में सक्षम हों तो बाल, तपस्वी आदि मुनियों का केशलुंचन ही करना चाहिए। क्षुरमुण्डन में किसी प्रकार का दोष तो नहीं; किन्तु यह मूलमार्ग नहीं है ।
किसी मुनि के सिर पर छाले, फुन्सी आदि हो गयी हों अथवा कोई मुनि मस्तिष्क ज्वर आदि से पीड़ित हो तो कैंची द्वारा मुण्डन करना चाहिए । फुन्सी आदि की स्थिति में क्षुर का प्रयोग और अधिक हानिकारक हो सकता है, अतः तीसरा प्रकार कुछ स्थितियों में ही आचरणीय है।