Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 93
यदि उत्तरकालीन ग्रन्थों का अवलोकन किया जाए तो तिलकाचार्यसामाचारी (13वीं शती), सुबोधासामाचारी (13वीं शती), विधिमार्गप्रपा (14वीं शती), आचारदिनकर (15वीं शती) आदि में दीक्षा सम्बन्धी विधि-विधानों का उत्तरोत्तर विकसित रूप उपलब्ध होता है। ये दीक्षा विधि से सम्बन्धित प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाते हैं। इनमें भी विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर वर्तमान सामाचारी में प्रचलित दीक्षा विधि के आधारभूत ग्रन्थ हैं।
यदि अर्वाचीन ग्रन्थों को देखा जाए तो वहाँ मौलिक ग्रन्थ के रूप में लगभग एक भी कृति उपलब्ध नहीं है। हाँ, विभिन्न परम्पराओं से सम्बन्धित संकलित कृतियाँ अवश्य देखी जाती है, किन्तु उन ग्रन्थों का मुख्य आधार पूर्ववर्ती ग्रन्थ ही हैं।
जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है वहाँ पूर्वकालीन आदिपुराण (39/ 76-78,17-18वी. क्रिया) में दीक्षाद्य क्रिया के नाम से इस विधि का उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि वहाँ गृहत्याग एवं दीक्षाद्य इन दो क्रियाओं को पृथक्-पृथक् माना गया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में दोनों क्रियाएँ एक ही संस्कार के अन्तर्गत स्वीकार की गई हैं।
उपर्युक्त वर्णन से इतना निश्चित होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में विक्रम की 8वीं शती से लेकर 15वीं शती के मध्य दीक्षा विधि की प्रक्रिया में क्रमिक विकास दिखाई देता है। वर्तमान की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में 14वीं15वीं शती में विरचित ग्रन्थों को अधिक प्रमाणभूत माना गया है। आज भी प्रायः समस्त प्रकार के विधि-विधान इन्हीं ग्रन्थों के अनुसार करवाये जाते हैं। इस दृष्टि से यहाँ विधिमार्गप्रपा के आधार पर दीक्षा विधि उल्लिखित करेंगे। जैन परम्पराओं में प्रचलित दीक्षा विधि
दीक्षा दिन से पूर्व दिन की विधि
खरतरगच्छीय विधिमार्गप्रपा के अनुसार प्रव्रज्या दिन से पूर्व दिन की सन्ध्या में दीक्षाग्राही के पारिवारिक जन एक ओढ़ी (छाब) के अन्दर रजोहरण आदि साधु वेश रखकर, सौभाग्यवती नारियों के मस्तक पर उस छाब को धारण करवाते हुए, वाजिंत्रादि मंगल ध्वनि के साथ गुरु के उपाश्रय में आयें। यदि जिनमन्दिर निकट हों, तो सर्वप्रथम वहाँ अक्षत - नारियल द्वारा द्रव्यपूजा आदि करें। फिर गुरु भगवन्त को वन्दन करें | 79