Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 85 कार्यों के लिए भी समय का उचित नियोजन किया जा सकता है । कषाय विजय संयमी जीवन का मूल उद्देश्य है, अतः जीवन से क्रोधादि कषायों का उपशमन करने के लिए साधक नित प्रयत्नशील रहता है तथा क्षमा आदि दस गुणों को धारण कर जीवन में सुख-शान्ति एवं सन्तोष को प्राप्त करता है। सत्य, प्रिय, हित, मितकारी वचन बोलने से सभी के लिए स्नेहपात्र बनता है। वाणी के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं को निराकृत कर देता है।
आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में दीक्षा मार्ग का मूल्यांकन करें तो ज्ञात होता है कि इससे बढ़ती भोगवादी विचारधारा पर अंकुश लगता है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म एवं परिग्रह समस्याओं के मूल कारण हैं। इससे उन कारणों के विनाश का मार्ग प्राप्त होता है। प्रदूषण पर्यावरण की रोकथाम हेतु प्राकृतिक अतिदोहन को विराम देना आवश्यक है। मुनि जीवन प्राकृतिक मित्रता का श्रेष्ठ उदाहरण है। आज जातिगत भेदभाव, वर्णभेद, तनाव ( Tension), क्रोध, अहंकार आदि अनेक समस्याओं के मूलभूत हेतु हैं। मुनि जीवन इन सबसे मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित करता है तथा समत्व योग की ओर प्रवृत्त करते हुए पक्षपा पूर्ण दृष्टि को विकसित नहीं होने देता।
इस तरह आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दीक्षा संस्कार का मूल्य सर्वोपरि है। दीक्षा के लाभ
जैन परम्परा की उत्कृष्ट साधना का नाम है दीक्षा । दीक्षाव्रत स्वीकार करने के बाद व्यक्ति न केवल सांसारिक बन्धनों या पाप कार्यों से विमुक्त बनता है अपितु मुनिधर्म का सम्यक् परिपालन करते हुए विभिन्न गुणों को विकसित करता है।
गुणवृद्धि – आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार दीक्षा स्वीकार के विशुद्ध भाव से कर्मों का क्षयोपशम होता है और कर्मों के क्षयोपशम से पूर्व प्राप्त सम्यक् दर्शनादि गुणों में अवश्य वृद्धि होती है, क्योंकि कारण के होने से कार्य अवश्य होता है यह नियम है। 53
साधर्मिक वात्सल्यवृद्धि - दीक्षित व्यक्ति में धर्म के प्रति अत्यन्त सम्मान की भावना होती है और वह साधर्मिक सेवा को प्रधानता देने वाला होता है, इसलिए दीक्षितों में साधर्मिकों के प्रति स्नेह की वृद्धि होती है।