Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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72...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के.....
आज जो कान्वेण्ट (Convent), बोर्डिंग (Boarding), Hostel, Abroad education आदि का प्रचलन है वह क्या है ? बच्चे साल-साल भर पारिवारिक माहौल, संस्कार, समाज सभी से अलग हो जाते हैं। Abroad education की चाह में वर्षों तक अपनी मातृभूमि से दूर रहते हैं, उसके लिए किसको सजा दी जाए ? जो बच्चे बाल दीक्षा ग्रहण करते हैं, वहाँ उनका ध्यान रखने के लिए समाज एवं ज्येष्ठ गुरुजन होते हैं। जिनके द्वारा संस्कारों का आरोपण होता है तथा भारतीय संस्कृति का पोषण होता है। कम से कम वे बालक पाश्चात्य संस्कृति की अन्धी दौड़ का हिस्सा नहीं बनते।
कुछ लोगों का तर्क है कि आठ साल के बालक में संसार को समझने की पर्याप्त समझ एवं अनुभव नहीं होता, ऐसे में उन्हें दीक्षा देना उनके साथ विश्वासघात एवं उन्हें अंधेरे में रखना है। यह बात सही है कि आठ वर्ष के बालक को न संसार का पूर्ण ज्ञान होता है और ना ही संयमी जीवन की महत्ता की समझ, परन्तु आठ वर्ष के बालक का मस्तिष्क इतना तीक्ष्ण (Sharp) तो हो ही जाता है कि वह अपना हित-अहित समझ सके। फिर आज की T.V.,
Media, Internet ने बालकों को इसे संसार का हर प्रकार का स्वरूप भी दिखला दिया है, ऐसे में यदि वह अपनी समझ एवं संस्कारपूर्वक दीक्षा लेते हैं तो उसमें कुछ गलत नहीं है। जब हम व्यापार (Business), शिक्षा, कला, आदि किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो उसका ज्ञान अनुभव के साथ बढ़ता जाता है। वैसे ही संयमी जीवन स्वीकार करने से पूर्व मुमुक्षु जीवन में एवं तदनन्तर संयमी जीवन में वह परिपक्व होता जाता है पर इसका अर्थ विश्वासघात या ठगाई कदापि नहीं है और यदि यह विश्वासघात है तो कोई भी नया कार्य सीखना या नये क्षेत्र में प्रवेश करना विश्वासघात होगा।
__एक प्रश्न यह भी उठता है कि वह बालक-बालिका जो दीक्षा अंगीकार करते हैं वे सांसारिक सुखों का आस्वाद ही नहीं ले पाते तो फिर उनका त्याग अधूरा त्याग है। इसी के साथ उनके पुनः संसार में जाने की सम्भावनाएँ भी अधिक बढ़ जाती हैं।
यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो बाल मन यह कोरे कागज की भांति होता है उस पर जो लिख दिया जाए या जिन संस्कारों को सिंचित किया जाए वे चिरस्थायी होते हैं तथा आजीवन बने रहते हैं। आज भी हम देखते हैं कि प्रतिभा सम्पन्न अधिक साधु-साध्वी बाल दीक्षित हैं। रही उनके