Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 77
होने के बाह्य कारण विशेष महत्त्व नहीं रखते हैं। वह गुरु द्वारा आसेवित चर्या का अनुसरण करता हुआ गन्तव्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, इसीलिए दीक्षादान का अधिकार योग्य गुरु को दिया गया है। • बाल दीक्षा की उपादेयता
जैनागमों में बाल दीक्षा के समर्थन एवं उसकी मूल्यवत्ता के विषय में उल्लेख आता है कि "धन्नाहु बालमुणिणो, कुमारवासंमि जे उ पव्वइआ" अर्थात जो बाल्यवय में दीक्षित होते हैं वे बालमुनि धन्य हैं। ___ महोपाध्याय यशोविजयजी ने बालदीक्षा की महत्ता दर्शाते हुए उल्लिखित किया है कि जहाँ बालदीक्षा की प्रवृत्ति अखण्ड रूप से प्रवर्तित होती है वहाँ तीर्थ का विच्छेद नहीं होता। क्योंकि जो आत्माएँ बाल्यकाल से ही गुरु चरणों में समर्पित हो जाती हैं वे गुरुगम पूर्वक गीतार्थ, आगमज्ञाता एवं विशुद्ध चारित्र पालक बनती हैं तथा ऐसे महामुनियों से ही जिनशासन अखण्ड रूप से प्रवर्तित रहता है।
पंचवस्तुक आदि ग्रन्थों के अनुसार उत्सर्गत: आठ से अधिक उम्र वाले बालक को दीक्षा दी जा सकती है तथा पंचकल्पभाष्य के अनुसार अपवादतः आठ वर्ष से न्यून उम्र के बालक को भी दीक्षा दे सकते हैं। सामान्यतया बालवय में ली गई दीक्षा से जिनशासन की स्थिति दीर्घकाल तक टिकी रहती है। ____ बचपन एक पवित्र अवस्था है, वह समय कोरे कागज की भाँति रिक्त होता है। जिस प्रकार कोरे कागज पर मनोनुकूल अक्षर लिखे जा सकते हैं, इच्छानुसार चित्रकला प्रदर्शित की जा सकती है, यथेष्ट रंग भरे जा सकते हैं उसी प्रकार इस अवस्था में अच्छे संस्कारों का रंग चढ़ाया जा सकता है। यह ग्रहणशील अवस्था है। इस अवधि के दौरान दिए गए संस्कार यावज्जीवन के लिए स्थाई एवं उपयोगी बने रहते हैं। ___पाप रहित दीक्षा के लिए भुक्तभोगियों की अपेक्षा बालवय अधिक योग्य है, क्योंकि भुक्तभोगी को पूर्वमुक्त वस्तुओं की स्मृति आदि एवं अतिशय दोष सम्भव है जबकि अभुक्तभोगी की मति बाल्यकाल से ही जिनवचन भावित होने के कारण विषयसुख की अभिलाषा, उत्सुकता आदि दोष प्राय: होते ही नहीं है। ___चारित्र धर्म की प्राप्ति क्षयोपशम भाव से होती है इसलिए चारित्र के साथ बालभाव का विरोध नहीं हो सकता। कारण कि चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय और वय का कोई सम्बन्ध नहीं है।