Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 41 केतुग्रह जिनपति पुरतः स्वस्थानं गच्छ-गच्छ स्वाहा। नन्दी विसर्जन का मन्त्र इस प्रकार है
"ॐ ह्री* नमोऽर्हत परमेश्वराय, चतुर्मुखाय, परमेष्ठिने, त्रैलोक्याऽर्चिताय, अष्टदिक्कुमारी परिपूजिताय पुनरागमनाय स्वस्वस्थानं गच्छ-गच्छ स्वाहा।" ___ यहाँ दिक्पाल देवता आदि के विसर्जन मन्त्र उच्चरित करने के साथ-साथ प्रत्येक के निर्धारित स्थान पर वासचूर्ण अवश्य डालना चाहिए। यदि दिक्पालादि को आमन्त्रित और विसर्जित करने का समय न हो तो तीन बार नमस्कारमन्त्र गिनकर नन्दी की स्थापना कर लेनी चाहिए, ऐसा परवर्ती जैनाचार्यों का कहना है। नन्दीरचना सम्बन्धी विधि-विधानों के प्रयोजन
समवसरण की साक्षात परिकल्पना करते हुए अरिहन्त प्रतिमा को तीन गढ़ युक्त उच्च स्थान पर स्थापित करना, नन्दीरचना कहलाता है। इससे सम्बन्धित कृत्यों के निम्नोक्त प्रयोजन हो सकते हैं
नन्दीरचना मंगल रूप कैसे? नन्दी रचना के माध्यम से अनन्त उपकारी, तीन लोकों में पूज्य तीर्थङ्कर परमात्मा के उपकारों का स्मरण करते हैं। . श्रेष्ठ कार्यों की सिद्धि हेतु उत्तम साक्षी के रूप में उनका आलम्बन स्वीकार किया जाता है। • परमात्मा की साक्षात अनुभूति करने से परिणामों में विशुद्धता एवं आत्मिक बल में वृद्धि होती है। . शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप पूर्वसंचित अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है तथा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, करुणा, दया, मैत्री आदि शुभ भाव वर्धित होते हैं। • जैन परम्परा में चैत्यवन्दन, देववन्दन आदि क्रियाएँ अरिहन्त परमात्मा की पूजा विशेष से ही सम्बन्धित हैं। • दूसरे चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में चौबीस तीर्थङ्कर के नामों एवं गुणों का ही स्मरण किया जाता है। इस प्रकार तीर्थङ्कर परमात्मा हमारे लिए सर्वाधिक पूज्य एवं सर्वोत्कृष्ट मंगलरूप हैं। अत: इनका सर्वप्रथम स्मरण एवं सान्निध्य हमारी कर्तव्य बुद्धि और मंगल कामना का सूचक है। नन्दीरचना के मूल में भी यही लक्ष्य अन्तर्निहित है।
देवी-देवता का आह्वान क्यों? समवसरण की बारह पर्षदा में से आठ पर्षदाएँ देवी-देवताओं की होती है। उनका आह्वान तद्प अनुभूति करने एवं क्रियानुष्ठान की निर्विघ्नता के उद्देश्य से किया जाता है।