Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 49
2. निष्क्रमण - बाह्य और आभ्यन्तर संयोग से बाहर निकलना निष्क्रमण है। 3. समता - इष्ट-अनिष्ट, अनुकूल-प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव
रखना समता है। 4. त्याग - धन, सम्पत्ति आदि बाह्य और कषाय आदि आभ्यन्तर परिग्रह
को दूर करना त्याग है। 5. वैराग्य - विषयों का राग छोड़ना वैराग्य है। 6. धर्माचरण - क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म का पालन करना धर्माचरण है। 7. अहिंसा - प्राणियों की हिंसा नहीं करना अहिंसा है। 8. दीक्षा - सभी जीवों को अभयदान देना, भयरहित कर देना
दीक्षा कहलाता है। सार रूप में कहा जाए तो वेश परिवर्तन करना द्रव्य दीक्षा है और चैतसिक विकारों का त्याग कर पवित्र जीवन जीना भाव दीक्षा है। प्रव्रज्या संस्कार की आवश्यकता क्यों ? ___ इस भौतिक युग में यह प्रश्न सर्वाधिक रूप से उभर रहा है कि दीक्षा क्यों ली जाती है ? संसार अवस्था में रहकर धर्माराधना सम्भव नहीं है ? दीक्षा अंगीकार करने का मूलभूत प्रयोजन क्या है ? इसका प्रथम समाधान यह है कि तीर्थङ्कर पुरुषों ने साधकों की मनोभूमिका को केन्द्र में रखते हए दो मार्गों की स्थापना की है 1. सागार और 2. अनगार। इसी को देशविरति और सर्वविरति या गृहस्थधर्म और मुनिधर्म भी कहा जाता है।
जैन धर्म में साधना के दो पक्ष हैं- बाह्य और आभ्यांतरिक। समत्व की साधना करना और राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना आभ्यांतरिक पक्ष है तथा हिंसक प्रवृत्तियों का त्याग आदि उसका बाह्य पक्ष है। इसमें समभाव की प्रधानता ही मुख्य है, क्योंकि मानसिक रूप से समभाव पैदा हुए बिना साधक में सावध क्रियाओं से मुक्त नहीं मिल सकती, इसलिए दीक्षित जीवन का मूल आधार समत्व की साधना है। दीक्षा प्रदान करते समय गुरु अपने शिष्य को यह संकल्प करवाते हैं कि वह आजीवन सामायिक दंडक के माध्यम से समभाव की साधना में निरत रहेगा। इस अवसर पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया इसी उद्देश्य को समर्थित करने हेतु होती है।
यह मार्ग केवली प्ररूपित होने से सोद्देश्य है। दीक्षा स्वीकार का एक